Chapter 3, Verse 4

Text

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3.4।।

Transliteration

na karmaṇām anārambhān naiṣhkarmyaṁ puruṣho ’śhnute na cha sannyasanād eva siddhiṁ samadhigachchhati

Word Meanings

na—not; karmaṇām—of actions; anārambhāt—by abstaining from; naiṣhkarmyam—freedom from karmic reactions; puruṣhaḥ—a person; aśhnute—attains; na—not; cha—and; sannyasanāt—by renunciation; eva—only; siddhim—perfection; samadhigachchhati—attains


Translations

In English by Swami Adidevananda

No one experiences freedom from action (Naiskarmya) by abstaining from work; and no one ever attains success through mere renunciation of work.

In English by Swami Gambirananda

A person does not attain freedom from action by abstaining from action; nor does he attain fulfillment merely through renunciation.

In English by Swami Sivananda

Man does not reach actionlessness by not performing actions; nor does he attain perfection by mere renunciation.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

A person attains actionlessness not just by abstaining from actions, but also by renunciation, he attains success (emancipation).

In English by Shri Purohit Swami

No one can attain freedom from action by abstaining from action, nor can they reach perfection by simply not acting.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.4।। मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है।

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।3.4।। कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) प्राप्त करता है।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

3.4 न not? कर्मणाम् of actions? अनारम्भात् from nonperformance? नैष्कर्म्यम् actionlessness? पुरुषः man? अश्नुते reaches? न not? च and? संन्यसनात् from renunciation? एव only? सिद्धिम् perfection? समधिगच्छति attains.Commentary Actionlessness (Naishkarmyam) and perfection (Siddhi) are synonymous. The sage who has attained to perfection or reached the state of actionlessness rests in his own essential nature as ExistenceKnowledgeBliss Absolute (Satchidananda Svarupa). He has neither necessity nor desire for action as a means to an end. He has perfect satisfaction in the Self.One attains to the state of actionlessness by gaining the knowledge of the Self. If a man simply sits iet by abandoning action you cannot say that he has attained to the state of actionlessness. His mind will be planning? scheming and speculating. Thought is real action. The sage who is free from affirmative thoughts? wishes? and likes and dislikes? who has the knowledge of the Self can be said to have attained to the state of actionlessness.No one can reach perfection or freedom from action or knowledge of the Self by mere renunciation or by simply giving up activities without possessing the knowledge of the Self. (Cf.XVIII.49).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।3.4।। व्याख्या-- 'न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते'-- कर्मयोगमें कर्म करना अत्यन्त आवश्यक है। कारण कि निष्कामभावसे कर्म करनेपर ही कर्मयोगकी सिद्धि होती है (टिप्पणी प0 117)। यह सिद्धि मनुष्यको कर्म किये बिना नहीं मिल सकती।मनुष्यके अन्तःकरणमें कर्म करनेका जो वेग विद्यमान रहता है, उसे शान्त करनेके लिये कामनाका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है। कामना रखकर कर्म करनेपर यह वेग मिटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता है।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।3.4।। अपने आत्मस्वरूप की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति परिपूर्ण है। इस पूर्णत्व के अज्ञान के कारण हमारी बुद्धि में अनेक इच्छायें सुख को पाने के लिये उत्पन्न होती हैं। यह सब जानते हैं कि हम केवल उन्हीं वस्तुओं की इच्छा करते हैं जो पहले से हमारे पास पूर्ण रूप में अथवा पर्याप्त मात्रा में नहीं होतीं। जैसी इच्छायें वैसी ही विचार वृत्तियाँ मन में उठती हैं। मन में उठने वाली ये वृत्तियाँ विक्षेप कहलाती हैं। प्रत्येक क्षण इन वृत्तियों के गुणधर्म इच्छाओं के अनुरूप ही होते हैं। ये विचार ही शरीर के स्तर पर बाह्य जगत् में मनुष्य के कर्म के रूप में व्यक्त होते हैं। इस प्रकार अविद्या जनित इच्छा विक्षेप और कर्म की श्रृंंखला में हम बँधे पड़े हुए हैं।इस पर और अधिक गहराई से विचार करने पर ज्ञात होगा कि वास्तव में यह सब भिन्नभिन्न न होकर एक आत्म अज्ञान के ही अनेक रूप हैं। यह अज्ञान बुद्धि मन और शरीर के स्तर पर क्रमश इच्छा विचार और कर्म के रूप में व्यक्त होता है। अत स्वाभाविक है कि यदि परम तत्त्व की परिभाषा अज्ञान के परे का अनुभव है तो यह भी सत्य है कि इच्छा शून्य या विचार शून्य या कर्म शून्य स्थिति ही आत्मस्वरूप है। कर्मशून्यत्व को यहाँ नैर्ष्कम्य कहा है।इस प्रकार विचार करने से ज्ञात होता है कि नैर्ष्कम्य का वास्तविक अर्थ पूर्णत्व है। अत भगवान् कहते हैं कि कर्मों के संन्यास मात्र से नैर्ष्कम्य सिद्धि नहीं मिलती। जीवनसंघर्षों से पलायन व्यक्ति के विकास के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग नहीं है। अर्जुन का विचार रणभूमि से पलायन करने का था और इसीलिए उसे वैदिक संस्कृति के सम्यक् ज्ञान की पुन शिक्षा देना आवश्यक था। भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिव्य गीतोपदेश का यही प्रयोजन भी था।कर्मयोग से अन्तकरण शुद्धि और तत्पश्चात् ज्ञानयोग से आत्मानुभूति संक्षेप में यह है आत्मविकास की साधना जिसका संकेत इस श्लोक में किया गया है। इसलिए हिन्दू धर्म पर लिखने वाले सभी महान् लेखक इस श्लोक को प्राय उद्धृत करते हैं।ज्ञान के बिना केवल कर्मसंन्यास से ही नैर्ष्कम्य अथवा पूर्णत्व क्यों नहीं प्राप्त होता कारण यह है कि

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।3.4।।किमिति भगवता बुद्धेर्ज्यायस्त्वं ज्यायसी चेदित्यत्रोक्तमुपेक्षितमिति तत्राह यदर्जुनेनेति। किंच ज्ञाननिष्ठायां संन्यासिनामेवाधिकारो भगवतोऽभिप्रेतोऽन्यथा तदीयविभागवचनविरोधादिति विभागवचनसामर्थ्यसिद्धमर्थमाह तस्याश्चेति। तर्हि विभागवचनानुरोधादर्जुनस्यापि संन्यासपूर्विकायां ज्ञाननिष्ठायामेवाधिकारो भविष्यति नेत्याह मां चेति। बुद्धेर्ज्यायस्त्वमुपेत्यापीति चकारार्थः। अर्जुनमालक्ष्यभगवानाहेति संबन्धः। अन्तरेणापि कर्माणि श्रवणादिभिर्ज्ञानावाप्तिर्भविष्यतीति परबुद्धिमनुरुध्य विशिनष्टि कर्मेति। विभागवचनवशादसमुच्चयश्चेदुभयोरपि ज्ञानकर्मणोः स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थहेतुत्वमन्यथा कर्मवज्ज्ञानमपि न स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थं साधयेदित्याशङ्क्य संबन्धान्तरमाह अथवेति। तर्हि ज्ञाननिष्ठापि कर्मनिष्ठावन्निष्ठात्वाविशेषान्न स्वातन्त्र्येण पुरुषार्थहेतुरिति समुच्चयसिद्धिरित्याशङ्क्याह ज्ञाननिष्ठा त्विति। नहि रज्जुतत्त्वज्ञानमुत्पन्नं फलसिद्धौ सहकारिसापेक्षमालक्ष्यते। तथेदमपि चोत्पन्नं मोक्षाय नान्यदपेक्षते तदाह अन्येति।यस्य चैतत्कर्म इति श्रुताविव कर्मशब्दस्य क्रियमाणवस्तुविषयत्वमाशङ्क्य व्याचष्टे क्रियाणामिति। ताश्च नित्यनैमित्तिकत्वेन विभजते यज्ञादीनामिति। अस्मिन्नेव जन्मन्यनुष्ठितानां कर्मणां बुद्धिशुद्धिद्वारा ज्ञानकारणत्वे ब्रह्मचारिणां कुतो ज्ञानोत्पत्तिर्जन्मान्तरकृतानां कर्मणां वा तथात्वे गृहस्थादीनामैहिकानि कर्माणि न ज्ञानहेतवः स्युरित्याशङ्क्यानियमं दर्शयति इहेति। नेमानि सत्त्वशुद्धिकारणान्युपात्तदुरितप्रतिबन्धादित्याशङ्क्याह उपात्तेति। तर्हि तावतैव कृतार्थानां कुतो ज्ञाननिष्ठाहेतुत्वं तत्राह तत्कारणत्वेनेति। कर्मणां चित्तशुद्धिद्वारा ज्ञानहेतुत्वे मानमाह ज्ञानमिति। अनारम्भशब्दस्योपक्रमविपरीतविषयत्वं व्यावर्तयति अननुष्ठानादिति। निष्कर्मणः संन्यासिनः कर्मज्ञानं नैष्कर्म्यमिति व्याचष्टे निष्कर्मेति। कर्माभावावस्थां व्यवच्छिनत्ति ज्ञानयोगेनेति। तस्याः साधनपक्षपातित्वं व्यावर्तयति निष्क्रियेति। कर्मानुष्ठानोपायलब्धा ज्ञाननिष्ठा स्वतन्त्रा पुमर्थहेतुरिति प्रकृतार्थसमर्थनार्थं व्यतिरेकवचनस्यान्वये पर्यवसानं मत्वा व्याचष्टे कर्मणामिति। तद्विपर्ययमेव व्याचष्टे तेषामिति। उक्तेऽर्थे हेतुं पृच्छति कस्मादिति। जिज्ञासितं हेतुमाह उच्यत इति। उपायत्वेऽपि तदभावे कुतो नैष्कर्म्यासिद्धिरित्याशङ्क्याह नहीति। ज्ञानयोगं प्रति कर्मयोगस्योपायत्वे श्रुतिस्मृती प्रमाणयति कर्मयोगेति। श्रौतमुपायोपेयत्वप्रतिपादनं प्रकटयति श्रुताविति। यत्तु गीताशास्त्रे कर्मयोगस्य ज्ञानयोगं प्रत्युपायत्वोपपादनं तदिदानीमुदाहरति इहापि चेति। न कर्मणामित्यादिना पूर्वार्धं व्याख्यायोत्तरार्धं व्याख्यातुमाशङ्कयति नन्विति। आदिशब्देनशान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुःसंन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः इत्यादि गृह्यते। तत्रैव लोकप्रसिद्धिमनुकूलयति लोके चेति। प्रसिद्धतरंयतो यतो निवर्तते ततस्ततो विमुच्यते। निवर्तनाद्धि सर्वतो न वेत्ति दुःखमण्वपि इत्यादिदर्शनादिति शेषः। लौकिकवैदिकप्रसिद्धिभ्यां सिद्धमर्थमाह अतश्चेति। तत्रोत्तरत्वेनोत्तरार्धमवतार्य व्याकरोति अत आहेत्यादिना। एवकारार्थमाह केवलादिति। तदेव स्पष्टयति कर्मेति। उक्तमेव नञ्मनुकृष्य क्रियापदेन संगतिं दर्शयति न प्राप्नोतीति।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।3.4।।तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव इत्युक्तवन्तं खिन्नचित्तमर्जुनं कर्म न कर्तव्यमित्येवंभन्वानमालक्ष्याह नेति। यद्वा निष्ठेत्येकवचनेन सूचितं कर्मनिष्ठायाः ज्ञाननिष्ठाप्राप्तिहेतुत्वेन पुरुषार्थसाधनत्वं ज्ञाननिष्ठायाः कर्मनिष्ठोपायलब्धस्वरुपायास्तु स्वातन्त्र्येणैव पुरुषार्थहेतुत्वं च स्फुटं वक्तुमारभते नेत्यादिना। कर्मणांतमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्याज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः। यथादर्शतलप्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि इति स्मृत्यासर्वापेक्षा च यज्ञादिश्रुतेरि ति न्यायेन च चित्तशुद्धिद्वारा ज्ञानोपायत्वेन विहितानामकरणात् नैष्कर्म्यं कर्मशून्यत्वं ज्ञानयोगेन निष्ठां पुरुषो नाश्रुते न प्राप्नोति किंतु तेषामारम्भात्प्राप्नोतीत्यर्थः। ननुअभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् इत्यादौ कर्तव्यकर्मसंन्यासादपि नैष्कर्म्यप्राप्तिः श्रुयतेऽतस्तदर्थिनः किं कर्मारम्भेणेति चेत्तत्राह नेति। नच संन्यसनात्कर्मत्यागमात्रात् ज्ञानशून्यात्सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां प्राप्नोतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।3.4।।इतश्च नियोक्ष्यामीत्याह न कर्मणामिति। कर्मणां युद्धादीनामनारम्भेण नैष्कर्म्यं निष्कर्मतां काम्यकर्मपरित्यागेन प्राप्यत इति मोक्षं नाश्नुते। ज्ञानमेव तत्साधनं न तु कर्माकरणमित्यर्थः। कुतः पुरुषत्वात्। सर्वदा स्थूलेन सूक्ष्मेण वा पुरेण युक्तो ननु जीवः यदि कर्माकरणेन मुक्तिः स्यात् स्थावराणाम्। न चाकरणे कर्माभावान्मुक्तिर्भवति प्रतिजन्मकृतानामनन्तकर्मणां भावात्।न च सर्वाणि भुक्तानि एकस्मिञ्च्छरीरे बहूनि हि कर्माणि करोति। तानि चैकैकानि बहुजन्मफलानि कानिचित् तत्र चैकैकानि कर्माणि भुञ्जन्प्राप्नोत्येव शेषेण मानुष्यम्। ततश्च बहुशरीरफलकर्माणीत्यसमाप्तिः। तच्चोक्तंजीवंश्चतुर्दशादूर्ध्वं पुरुषो नियमेन तु। स्त्री वाप्यनूनदशकं देहं मानुषमार्जते। चतुर्दशोर्ध्वजीवीनि संसारश्चादिवर्जितः। अतोऽवित्वा परं देवं मोक्षाशा का महामुने इति ब्राह्मे। यदि सादिः स्यात्संसारः पूर्वकर्माभावादतत्प्राप्तिः। अबन्धकत्वं त्वकामेनैव भवति। तच्च वक्ष्यतेअनिष्टंमिष्टं 18।12 इति।ननु निष्कामकर्मणः फलाभावान्मोक्षः स्मृतः।निष्कामं ज्ञानपूर्वं तु निवृत्तमिह चोच्यते। निवृत्तं सेवमानस्तु ब्रह्माभ्येति सनातनम् इति मानवे। अतस्तत्साभ्यादकरणेऽपि भवतीत्यत आह न चेति। सन्न्यासः काम्यकर्मपरित्यागः। काम्यानां कर्मणां 18।2 इति वक्ष्यमाणत्वात्। अकामकर्मणामन्तःकरणशुद्ध्या ज्ञानान्मोक्षो भवति। तच्चोक्तंकर्मभिः शुद्धसत्त्वस्य वैराग्यं जायते हृदि इति भागवते । विरक्तानामेव च ज्ञानमुक्तम्न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षाद्वरीयसीरपि वाचः समासन्। स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधसौख्यं न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् भाग.5।11।3 इति। न तु फलाभावात् कर्माभावात्। अतो न कर्मत्याग एव मोक्षसाधनम्।यत्याश्रमस्तु प्रायत्यार्थो भगवत्तोषणार्थश्च। अप्रयतत्वमेव हि प्रायो गृहस्थादीनाम् इतरकर्मोद्योगात्। अप्रयतानां च न ज्ञानम् तथा हि श्रुतिः नाशान्तो नासमाहितः कठो.2।23 इति। महांश्च यत्याश्रमे भगवतस्तोषः। तथा ह्याह यत्याश्रमं तुरीयं तु दीक्षां मम सुतोषिणीम् इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। आधिकारिकास्तु तथैव प्रायत्ये समर्थाः। स एव च महान्भगवतस्तोषः। तच्चोक्तम् देवादीनामादिराज्ञां महोद्योगोऽपि भोगिनः। विष्णोश्चलति तद्भोगोऽत्यतीव हरितोषणम् इति पाद्मे।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।3.4।।अनयोः प्रकारयोरङ्गाङ्गिभावमाह न कर्मणामिति। कर्मणां यज्ञादीनामनारम्भादननुष्ठानान्नैष्कर्म्यं ज्ञाननिष्ठां नाश्नुते न प्राप्नोति।विविदिषन्ति यज्ञेन इति श्रुत्या यज्ञादीनां विद्याङ्गत्वेन विधानात्। ननु सन्प्रत्ययप्राधान्यात्कर्मणां विविदिषाङ्गत्वमत्र गम्यते। तेन विविदिषायां यज्ञादिना सिद्धायाम्एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति इति श्रुतेः प्रव्रज्यारूपमेव नैष्कर्म्यमिह ज्ञाननिष्ठासाधनं ग्राह्यम्। न ज्ञानं नैष्कर्म्यसिद्धिं परमामित्यादाविवात्र तद्ग्राहकस्य परमत्वविशेषणस्याभावात्। ननु कर्मयोगजनितचित्तशुद्ध्यभावे केवलात्संन्यासात्सिद्धिं समधिगच्छतीति योजनायां विप्रकृष्टयोर्ज्ञानकर्मणोः समुच्चयासंभवस्याभीष्टस्य सिद्धेः किमिति नैष्कर्म्यशब्देन निष्ठा गृह्यत इति चेत्सत्यम्। गुणैः कर्मकार्यत इति वाक्यशेषान्नैर्गुण्यहेतुकं मुख्यंज्ञानमेवेह नैष्कर्म्यपदार्थो नतु प्रव्रज्या। विविदिषन्ति यज्ञेनेत्यत्रापि जिगमिषत्यश्वेन जिघांसत्यसिनेत्यादाविव तृतीयान्तस्य धात्वर्थेनैवान्वयादश्वादीनां गमनादाविव यज्ञादीनां वेदन एवान्वयो ज्ञेयः। एतमेवेति श्रुतिस्तु विविदिषासंन्यासाभिप्रायेण प्रवृत्ता।एवं वैतमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणयाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति इति ज्ञानपरिपाकार्थस्य जीवन्मुक्तिसुखार्थस्य वा याज्ञवल्क्यादिभिरनुष्ठितस्य विद्वत्संन्यासस्यापि शास्त्रे दर्शनात्। असंन्यासिनो ज्ञानमेव नोत्पद्यत इति प्राचामाग्रहो विक्षेपककर्मत्यागरूपसंन्यासविषयो न तु काषायपरिधानमात्रविषयः। गार्गीव्याधवासिष्ठादीनामतथाविधानामपि ज्ञानोत्पत्त्यवगमादित्यास्तां तावत्। कर्मभिरशोधितचित्तस्य मन्दबुद्धेः रागद्वेषादिग्रस्तस्यात्मानात्मविवेकद्वारा चित्तरोधद्वारा वा नैष्कर्म्यप्राप्तिर्नस्तीति पूर्वार्धार्थः। ननुअभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् इति केवलात्कर्मसंन्यासादपि नैष्कर्म्यसिद्धिः स्मर्यते तत्कथमुच्यते न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यमस्तीति तत्राह नचेति। कर्मजचित्तशुद्ध्यभावे कृतादपि संन्यासान्न मोक्षसिद्धिः। उदाहृतस्मृतिस्तु चित्तशुद्धिपूर्वकसंन्यासाभिप्राया। नहि रागादिग्रस्तः सर्वभूतेभ्यः सर्वात्मानाऽभ्यं दातुमीष्टे अतो युक्तमुक्तं न च संन्यसनादेवेति।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।3.4।।न शास्त्रीयाणां कर्मणाम् अनारम्भाद् एव पुरुषः नैष्कर्म्यं ज्ञाननिष्ठाम् आप्नोति सर्वेन्द्रियव्यापाराख्यकर्मोपरतिपूर्विकां ज्ञाननिष्ठां न प्राप्नोति इत्यर्थः। न च आरब्धस्य शास्त्रीयस्य कर्मणः त्यागात् यतः अनभिसंहितफलस्य परमपुरुषाराधनविषयस्य कर्मणः सिद्धिः आत्मनिष्ठा स्यात् अतः तेन विना तां न प्राप्नोति अनभिसंहितफलैः कर्मभिः अनाराधितगोविन्दैः अविनष्टानादिकालप्रवृत्तानन्तपापसंचयैः अव्याकुलेन्द्रियतापूर्विका आत्मनिष्ठा दुःसंपाद्या।एतद् एव उपपादयति

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।3.4।।अतः सभ्यक् चित्तशुद्ध्यर्थं ज्ञानोत्पत्तिर्यन्तं वर्णाश्रमोचितानि कर्माणि कर्तव्यानि। अन्यथा चित्तशुद्ध्यभावेन ज्ञानानुत्पत्तेरित्याह न कर्मणामिति। कर्मणामनारम्भादननुष्ठानान्नैष्कर्म्यं ज्ञानं नाश्रुते नाप्नोति। ननु चएवमेव प्रव्राजिनो लोकमीप्सन्तः प्रव्रजन्ति इति संन्यासस्य मोक्षाङ्गत्वश्रुतेः संन्यासादेव मोक्षो भविष्यतीति किं कर्मभिरित्याशङ्क्योक्तम् नचेति। नच चित्तशुद्धिं विना कृतात्संन्यसनादेव ज्ञानाशून्यात्सिद्धिं मोक्षं समधिगच्छति प्राप्नोति।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।3.4।।ननु मोक्षेच्छैव हि कर्मयोगेऽपि पुरुषं प्रवर्तयति सा यदि जाता ततः किमव्यवहिते ज्ञानयोगे न प्रवर्तते इति शङ्कान कर्मणाम् इति श्लोकेन निराक्रियत इत्याह सर्वस्येति।लौकिकस्य इत्यनेन संसारलोकान्तर्गततया विषयव्याकुलेन्द्रियत्वमभिप्रेतम्।सहसैवेति कर्मयोगमकृत्वेत्यर्थः। निषेधस्यान्यविषयत्वज्ञापनाय शास्त्रीयशब्दः। नैष्कर्म्यशब्दस्याननुष्ठानादिपरत्वे साध्याविशेषादिदोषः स्यात् अतो निष्कर्मा निष्क्रान्तकर्मयोगः पर्यवसितकर्मयोगः ज्ञाननिष्ठ इत्यर्थः तस्य भावो नैष्कर्म्यमित्यभिप्रायेणाह ज्ञाननिष्ठामिति। सन्न्यसनशब्दस्याप्यत्रकर्मणां इत्यनेनैवान्वयं सन्न्यसनस्वभावादारब्धविषयत्वं तत एव सव्यसाचिनः समरजिहासावृत्तान्तं चाभिप्रेत्याह न चारब्धस्येति। नैष्कर्म्यशब्दानुषङ्गेऽपि सम्भवति पुनः सिद्धिशब्देनाभिधानस्य तात्पर्यं व्यञ्जयति यत इति। अनारम्भं सन्न्यसनं च सङ्कलय्याह अतस्तेन विनेति। कारणभूतकर्माभावे कथं कार्यं स्यादिति भावः। पञ्चम्या हेतुपरत्वं निषेधान्वयेन तत्तन्निषेध्यान्वयेन वा योज्यम्। पूर्वत्र कर्मयोगानारम्भे ज्ञानयोगासिद्धिः स्यादिति वाक्यार्थः उत्तरत्र तु यत्कर्मयोगत्यागादेव ज्ञानयोगसिद्धिरित्यभिप्रेतम् तदयुक्तम् सा हि तेनैव जन्येति तात्पर्यम्। तदिमामुभयीमपि वाक्यवृत्तिमभिप्रेत्य श्लोकाभिप्रेतमर्थमाह अनभिसंहितेति। कर्मभिरित्यस्यानाराधितेत्यनेनान्वयः। एतेनअनाराधितगोविन्दा ये नरा दुःखभागिनः इत्यादिकं स्मारितम्। अनभिसंहितफलकर्माभावे निश्श्रेयसौपयिकपरमपुरुषप्रीत्यभावः तदभावाच्च पापसञ्चयानुपरमः तेन च रजस्तमोमयमनोमलानपायः ततश्च रागद्वेषादिदोषाणां दीर्घायुष्यम् तेषु च जीवत्सु नेन्द्रियव्याकुलताशान्तिः बहिर्विषयव्याकुलेषु च तेषु न प्रत्यगर्थनिष्ठेति तादृशकर्मपरित्यागेन ज्ञाननिष्ठामनुतिष्ठासुः सप्तभूमस्य गोपुरस्य सप्तमं तलं प्रथमं चिकीर्षतीत्यपहास्यमिति भावः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।3.4 3.5।।तथा हि न कर्मणामिति। न हीति। ज्ञानं कर्मणा रहितं न भवति कर्म च कौशलोपेतं ज्ञानरहितं न भवति इत्येकमेव वस्तु ज्ञानकर्मणी। तथाचोक्तम्।न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया।ज्ञानक्रियाविनिष्पन्न आचार्यः पशुपाशहा।। इति तस्मात् ज्ञानान्तर्वर्ति कर्म अपरिहार्यम्। यतः परवश एव कायवाङ्मनसां परिस्पन्दात्मकत्वात् अवश्यं किञ्चित्करोति।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।3.4।।न कर्मणामिति। मोक्षस्य कर्मसाध्यत्वमुच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह इतश्चेति। स्ववर्णाश्रमोचिते युद्धादाविति शेषः। प्रागाधिकारिकत्वात्त्वया कर्म कर्तव्यमित्युक्तम् इदानीं कोऽपरो हेतुरुच्यते इत्यतो व्याचष्टे कर्मणामिति। अयमभिप्रायः कर्माणि न कार्याणीति वदन्प्रष्टव्यः किं ज्ञानं न मोक्षसाधनम् अपितु कर्माकरणमेवेति मत्वा कर्माणि त्यज्यन्ते उत ज्ञानं मोक्षसाधनं भवत्येव किन्तुकर्मणा बध्यते जन्तुः म.भा.12।241।7 इत्यादेः कर्माणि तत्प्रतिबन्धकानीति मत्वा। आद्येऽपि किं मोक्षस्य नैष्कर्म्यशब्दवाच्यत्वमात्रमाश्रित्येदमुच्यते अथवा क्रियाकारकफलरूपस्य संसारस्य कर्मैव बीजम्। अकरणे च बीजाभावात्संसारो न भविष्यतीति युक्तिमाश्रित्य आद्यस्येदं दूषणम्न कर्मणां इति। नैष्कर्म्यशब्दस्यान्यथापि व्याख्यानान्नाद्य इत्यर्थः। ततः किमित्यत आह ज्ञानमेवेति। उक्तमाक्षिप्य समाधत्ते कुत इति। नैष्कर्म्यशब्दस्यान्यार्थतामङ्गीकृत्य कर्माकरणस्य मोक्षसाधनत्वनिराकरणे को हेतुः इत्यर्थः। कथमस्य हेतुत्वं इत्यतो व्याचष्टे सर्वदेति। प्रलयेऽपि सम्भवार्थं स्थूलेन सूक्ष्मेण वेत्युक्तम्। तथापि कथं हेतुत्वमित्यत आह यदीति।स्यात् इत्यस्य पूर्वोत्तराभ्यां सम्बन्धः।स्थावराणां इत्यनधिकृतोपलक्षणम्। ततश्चानादौ संसारेऽनधिकृतदेहस्य सम्भवेन मुक्तिप्रसङ्गादधुनाऽपि दृश्यमानस्य पुरुषत्वं न स्यादिति भावः। द्वितीयनिरासेऽप्यस्यैवार्थस्य तात्पर्यमाह न चेति। कर्माभावात् संसारबीजाभावात्। अत्र नैष्कर्म्यमिति मुक्तिनामैव न तु परप्रमाणानुवादः। कुतो न भवतीत्यतोऽत्रापि पुरुषत्वादिति हेतुमभिप्रेत्याह प्रतीति। जन्मनिजन्मनि कृतानामित्यर्थः। पुरुषत्वेनानादौ संसारेऽधिकृतानन्तजन्मसम्भवात्। तत्र कृतानामनन्तकर्मणां भावात्। किमद्याकरणमात्रेण भवतीत्यर्थः।ननु पूर्वपूर्वशरीरकृतानि कर्माण्युत्तरोत्तरशरीरे भुक्तानि तत्कुतोऽनन्तकर्मणां भाव इत्यत आह न चेति। कुतो नेत्यत आह एकस्मिन्निति। हिशब्दो हेतौ। बहून्यपि भुज्यन्तां को दोष इत्यत आह तानि चेति तानि च कानिचिदिति सम्बन्धः एकैकानीति प्रत्येकमित्यर्थः। ननु तथाविधान्यप्यनधिकृतजन्मभिर्मुक्तानीत्यत आह तत्र चेति। तेषु कर्मसु भुञ्जन्भुञ्जानः। शेषेण कर्मशेषेण। मानुष्ये चाकरणमसम्भावितमित्याह ततश्चेति। असमाप्तिर्भोगेन कर्मणामिति शेषः। सम्भावनामात्रेणेदमुक्तं न तु प्रमितमित्यत आह तच्चोक्तमिति। चतुर्दशवर्षात्। अनूनो दशको यस्येति विग्रहः। ह्रस्वदीर्घव्यत्ययेन चतुर्दशोर्ध्वजीवीनीति स्त्रिया विशेषणम्। संसारश्चेति कर्मणामनन्तत्वोपपादनम्। अतो भोगेन क्षयासम्भवात्। अवित्वा अविदित्वा। पुरुषशब्देनानादिदेहसम्बन्ध उक्तः सोऽसिद्ध इत्यत आह यदीति। अतत्प्राप्तिराकस्मिकस्य संसारस्याप्राप्तिः स्यात् अतः पुरुषत्वं सिद्धमिति। ननु सन्तु प्राग्भवीयान्यनन्तकर्माणि तथापि बन्धकानि कथं प्रेक्षावता क्रियेरन् न ह्यनन्तानि पापानि प्राक्तनानि सन्तीत्येतावताऽद्य क्रियन्त इत्यत आह अबन्धकत्वं त्विति। कर्मणां बन्धाहेतुत्वं त्वकामनादिनैव भवति न त्वकरणेन प्रत्यवायस्यैव प्राप्तेरित्यर्थः। अकामेनाबन्धकत्वं भगवत्सम्मतमिति भावेनाह तच्चेति। शङ्करस्तुअकरणमसन्नसन्तं प्रत्यवायं जनयति कथमसतः सज्जायेत छा.उ.6।2।2 इति श्रुतेः इत्यवादीत्। तद्भास्करः प्रत्यषेधीत्। द्रव्यविषया श्रुतिः गुणस्त्वसतोऽपि जायते इति। उभावपि स्थूलदृश्वानौ न ह्यकरणमसत् तथा सति करणप्रसङ्गात्। किन्त्वभावः स च भाववत्तत्त्वमेवेति कथमकारणम्। गुणं प्रति कारणत्वे च द्रव्यकारणत्वं कुतो न भवेत्। ननुचात्रोपादानत्वस्य विवक्षितत्वादकारणस्य चाभावरूपतया सत्त्वेऽप्यत्र विवक्षितापादनत्वानुपपत्तेर्नप्रत्यवायजनकत्वमित्यभिप्राय इत्यत आह न हीति।न ह्यत्रोपादानत्वं विवक्षितं किन्तु निमित्तत्वमेवेत्युक्तम्।न च सन्न्यसनादेव इति पुनरुक्तम् अत्रापि कर्मसन्न्यसनस्य मोक्षसाधनत्वोक्तेरित्यत आह नन्विति।निष्कामं ज्ञानपूर्वं च इति मानवे वाक्ये तावन्निष्कामकर्मणा मोक्षः स्मृतः। स चोपपत्त्यन्तरादर्शनान्निष्कामकर्मणः फलाभावादित्येव तत्रोपपत्तिरङ्गीकार्या यत एवं फलाभावस्यैव प्राधान्यम् अतोऽकरणेऽपि फलाभावस्य साम्यान्मोक्षो भवत्येव। यत्प्राग्भवीयकर्मफलमुक्तं निष्कामकरणपक्षेऽपि तत्समानम्। न च विनिगमने कारणाभावः आयासाभावस्य सत्त्वात्। न च प्रत्यवायप्राप्तिः अमुमुक्षुविषयत्वसम्भवात्। अतो न कर्माणि करोमीति भावः। अनेन कथमस्य परिहारः इत्यत आह सन्न्यास इति। तेन च निष्कामकर्मकरणमुपलक्ष्यत इति भावः। निष्कामकर्मकरणान्मोक्षं न प्राप्नोतीति। अतो न तत् प्रतिबन्दीग्रहणं युक्तमित्यनेनोक्तम्। तथा च स्मृतिविरोध इत्यतः स्मृतेरभिप्रायमाह अकामेति। सकाशादिति शेषः पुंसामिति वा। अकामकर्मभिरन्तःकरणशुद्धिद्वारा ज्ञानं जायत इत्येतत्कुतः इत्यत आह तच्चोक्तमिति। नन्वत्र वैराग्यं जायत इत्युच्यते न तु ज्ञानमिति तत्राह विरक्तानामेवेति। प्रागपि वैराग्यद्वारेत्यभिमतमिति भावः। तथापि कथं विरोधपरिहारः गीतायामकामकर्मणां मोक्षसाधनत्वाभावावधारणात् इत्यतस्तदभिप्रायमाह न त्विति। फलाभावोपपत्तिकं कर्मणां मोक्षसाधनत्वं निषिद्ध्यते न तु सर्वथाऽपीत्यर्थः। प्रतिबन्दीं मोचयति कर्माभावादिति। अतः कर्माभावान्न मोक्ष इत्यर्थः। श्लोकतात्पर्यमुपसंहरति अत इति।ननु यत्याश्रमो मोक्षसाधनत्वेन श्रुत्यादिप्रसिद्धः तत्र चेयमेवोपपत्तिः। यत्तद्धर्माणां फलाभावः अतस्तत्साम्यादकरणेऽपि मोक्षो भवतीत्येतच्छङ्कानिरासार्थं चोक्तंन च सन्न्यसनादेव इति। एवं तर्हि श्रुत्यादिविरोध इत्यत आह यत्याश्रमस्त्विति। प्रायत्यं प्रयतत्वमीश्वरे मनस्समाधानम्। यतेर्द्वारद्वयेन मोक्षसाधनत्वं श्रुत्यादेरभिप्रेतम्। फलाभावोपपत्तिकं तु गीतायां निवारितं अतो न विरोध इति भावः। आश्रमान्तरेऽपि प्रायत्यसम्भवात्किं तदर्थं यत्याश्रमेण इत्यत आह अप्रयतत्वमेवेति। इतरकर्मसु यजनादिषु। प्रायत्यं कथं मोक्षसाधनं इत्यतो व्यतिरेकमुखेनोपपादयति अप्रयतानां चेति। प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् कठो.2।23 इति श्रुतिशेषः। अशान्तोऽभगवन्निष्ठः। असमाहितस्तत्र चित्तसमाधानरहितः। भगवत्तोषणस्याश्रमान्तरेऽपि सम्भवात्किं यत्याश्रमेण इत्यत आह महांश्चेति। तुरीयं परमहंसाख्यम्। वाक्यशेषेणान्वयः। यत्याश्रम एव चेत्प्रायत्यं महान्भगवतस्तोषश्च तर्हि तद्रहितानामाधिकारिकाणां तदुभयाभावप्रसङ्ग इत्यत आह आधिकारिकास्त्विति। तत्स्था अधिकारस्थाः। स एव अधिकार एव। तुष्यत्यनेनेति तोषः। समासान्तविधेरनित्यत्वादादिराज्ञामित्युक्तम्। यथोक्तं महाभाष्ये शुच्यांपि तटाकानि इति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।3.4।।तत्र कारणाभावे कार्यानुपपत्तेः कर्मणा तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्यात्मज्ञाने विनियुक्तानामनारम्भादननुष्ठानाच्चित्तशुद्ध्यभावेन ज्ञानायोग्यो बहिर्मुखः नैष्कर्म्यं सर्वकर्मशून्यत्वं ज्ञानयोगेन निष्ठामिति यावत् नाश्नुते न प्राप्नोति। ननुएतमेव प्रवाजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति इति श्रुतेः सर्वकर्मसंन्यासादेव ज्ञाननिष्ठोपपत्तेः कृतं कर्मभिरित्यत आह नच संन्यसनादेव चित्तशुद्धिंविना कृतात्सिद्धिं ज्ञाननिष्ठालक्षणां सम्यक्फलपर्यवसायित्वेन नाधिगच्छति नैव प्राप्नोतीत्यर्थः। कर्मजन्यां चित्तशुद्धिमन्तरेण सन्यास एव न संभवति यथा कथंचिदौत्सुक्यमात्रेण कृतोऽपि न फलपर्यवसायीति भावः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।3.4।।न()न्वेवं चेत्तदा मां प्रति कर्मकरणं किमाशयेनाज्ञप्तं इत्यत आह न कर्मणामिति। कर्मणामनारम्भादकरणान्नैप्कर्म৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷ कर्मादिरहितभावं भक्तिरूपं नाश्नुते न प्राप्नोतीत्यर्थः। अत्रायं भावः कर्मस्वरूपज्ञानाभावे त्यागे न कोऽपि पुरुषार्थः सिद्ध्येत् तस्माद्धेयत्वज्ञानार्थं तत्करणम्। अत एवारम्भ एवोक्तः न त्वाद्यं तत्करणमुक्तम्। स्वरूपाज्ञाने केवलं न भवतीत्याह न चेति। सन्न्यसनादेव स्वरूपाज्ञानात् केवलत्यागेन सिद्धिं त्यागफलं न च समधिगच्छति सम्यक् न प्राप्नोतीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।3.4।। न कर्मणां क्रियाणां यज्ञादीनाम् इह जन्मनि जन्मान्तरे वा अनुष्ठितानाम् उपात्तदुरितक्षयहेतुत्वेन सत्त्वशुद्धिकारणानां तत्कारणत्वेन च ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण ज्ञाननिष्ठाहेतूनाम् ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः। यथादर्शतलप्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि (महा0 शान्ति0 204।8) इत्यादिस्मरणात् अनारम्भात् अननुष्ठानात् नैष्कर्म्यं निष्कर्मभावं कर्मशून्यतां ज्ञानयोगेन निष्ठां निष्क्रियात्मस्वरूपेणैव अवस्थानमिति यावत्। पुरुषः न अश्नुते न प्राप्नोतीत्यर्थः।।कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं नाश्नुते इति वचनात् तद्विपर्ययात् तेषामारम्भात् नैष्कर्म्यमश्नुते इति गम्यते। कस्मात् पुनः कारणात् कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं नाश्नुते इति उच्यते कर्मारम्भस्यैव नैष्कर्म्योपायत्वात्। न ह्युपायमन्तरेण उपेयप्राप्तिरस्ति। कर्मयोगोपायत्वं च नैष्कर्म्यलक्षणस्य ज्ञानयोगस्य श्रुतौ इह च प्रतिपादनात्। श्रुतौ तावत् प्रकृतस्य आत्मलोकस्य वेद्यस्य वेदनोपायत्वेन तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन (बृह0 उ0 4।4।22) इत्यादिना कर्मयोगस्य ज्ञानयोगोपायत्वं प्रतिपादितम्। इहापि च संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः (गीता 5।6) योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये (गीता 5।11) यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् (गीता 18।5) इत्यादि प्रतिपादयिष्यति।।ननु च अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् इत्यादौ कर्तव्यकर्मसंन्यासादपि नैष्कर्म्यप्राप्तिं दर्शयति। लोके च कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यमिति प्रसिद्धतरम्। अतश्च नैष्कर्म्यार्थिनः किं कर्मारम्भेण इति प्राप्तम्। अत आह न च संन्यसनादेवेति। नापि संन्यसनादेव केवलात् कर्मपरित्यागमात्रादेव ज्ञानरहितात् सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां ज्ञानयोगेन निष्ठां समधिगच्छति न प्राप्नोति।।कस्मात् पुनः कारणात् कर्मसंन्यासमात्रादेव केवलात् ज्ञानरहितात् सिद्धिं नैष्कर्म्यलक्षणां पुरुषो नाधिगच्छति इति हेत्वाकाङ्क्षायामाह

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।3.4।।योगेऽनःकरणशोधकत्वं कर्मादेः संयोगपृथक्त्वन्यायेनैव निर्णीतं अन्यथा त्रयाणां जिज्ञासा स्वतन्त्रा न कृता स्यात्योगेन संसिद्धिर्ज्ञानेन भक्त्या चेति पुरुषार्थसाधनं इति आप्तभाष्ये निर्णीतं तेनात्र कर्मणामारम्भान्नैष्कयमोक्षसिद्धिरिति योगमतं द्रढयति न कर्मणामनारम्भादिति। कर्माधिकारिणां त्वादृशानां कर्मसन्न्यसनासाङ्ख्यादपि च न सिद्धिरित्याह न चेति। जीवन्मुक्तिकैर्गुणैर्वा मुक्तेनापि देहवत्त्वेन कर्मकरणदर्शनात्।


Chapter 3, Verse 4