Chapter 1, Verse 12

Text

तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः। सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।।1.12।।

Transliteration

tasya sañjanayan harṣhaṁ kuru-vṛiddhaḥ pitāmahaḥ siṁha-nādaṁ vinadyochchaiḥ śhaṅkhaṁ dadhmau pratāpavān

Word Meanings

tasya—his; sañjanayan—causing; harṣham—joy; kuru-vṛiddhaḥ—the grand old man of the Kuru dynasty (Bheeshma); pitāmahaḥ—grandfather; sinha-nādam—lion’s roar; vinadya—sounding; uchchaiḥ—very loudly; śhaṅkham—conch shell; dadhmau—blew; pratāpa-vān—the glorious


Translations

In English by Swami Adidevananda

Then the valiant grandsire Bhisma, the senior-most of the Kuru clan, roared like a lion and blew his conch with the intention of cheering up Duryodhana.

In English by Swami Gambirananda

The valiant grandfather, the eldest of the Kurus, loudly sounding a lion's roar, blew the conch to raise his (Duryodhana's) spirits.

In English by Swami Sivananda

His glorious grandsire, the oldest of the Kauravas, roared like a lion to cheer Duryodhana and blew his conch.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Generating joy in him, the powerful paternal grandfather (Bhisma), the senior-most among the Kurus, roared like a lion and blew his conchshell loudly.

In English by Shri Purohit Swami

Then, to enliven his spirits, the brave Grandfather Bheeshma, the eldest of the Kuru clan, blew his conch, its sound resembling that of a lion's roar.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.12।। दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए कुरुवृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्म ने सिंह के समान गरज कर जोर से शंख बजाया।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।1.12।।उस समय कौरवों में वृद्ध, प्रतापी पितामह भीष्म ने उस (दुर्योधन) के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च स्वर में गरज कर शंखध्वनि की।  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

1.12 तस्य his (Duryodhanas)? संजयन् causing? हर्षम् joy? कुरुवृद्धः oldest of the Kurus? पितामहः grandfather? सिंहनादम् lions roar? विनद्य having sounded? उच्चैः loudly? शङ्खम् conch? दध्मौ blew? प्रतापवान् the glorious.No Commentary.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.12।। व्याख्या--'तस्य संजनयन् हर्षम्'-- यद्यपि दुर्योधनके हृदयमें हर्ष होना शंखध्वनिका कार्य है और शंखध्वनि कारण है, इसलिये यहाँ शंखध्वनिका वर्णन पहले और हर्ष होनेका वर्णन पीछे होना चाहिये अर्थात् यहाँ 'शंख बजाते हुए दुर्योधनको हर्षित किया'--ऐसा कहा जाना चाहिये। परन्तु यहाँ ऐसा न कहकर यही कहा है कि 'दुर्योधनको हर्षित करते हुये भीष्मजीने शंख बजाया'। कारण कि ऐसा कहकर सञ्जय यह भाव प्रकट कर रहे हैं कि पितामह भीष्मकी शंखवादन क्रियामात्रसे दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न हो ही जायगा। भीष्मजीके इस प्रभावको द्योतन करनेके लिये ही सञ्जय आगे  'प्रतापवान्'  विशेषण देते हैं।  'कुरुवृद्धः'-- यद्यपि कुरुवंशियोंमें आयुकी दृष्टिसे भीष्मजीसे भी अधिक वृद्ध बाह्लीक थे (जो कि भीष्मजीके पिता शान्तनुके छोटे भाई थे), तथापि कुरुवंशियोंमें जितने बड़े-बूढ़े थे, उन सबमें भीष्मजी धर्म और ईश्वरको विशेषतासे जाननेवाले थे। अतः ज्ञानवृद्ध होनेके कारण सञ्जय भीष्मजीके लिये 'कुरुवृद्धः' विशेषण देते हैं।  'प्रतापवान्'-- भीष्मजीके त्यागका बड़ा प्रभाव था। वे कनक-कामिनीके त्यागी थे अर्थात् उन्होंने राज्य भी स्वीकार नहीं किया और विवाह भी नहीं किया। भीष्मजी अस्त्र-शस्त्रको चलानेमें बड़े निपुण थे और शास्त्रके भी बड़े जानकार थे। उनके इन दोनों गुणोंका भी लोगोंपर बड़ा प्रभाव था। जब अकेले भीष्म अपने भाई विचित्रवीर्यके लिये काशिराजकी कन्याओंको स्वयंवरसे हरकर ला रहे थे तब वहाँ स्वयंवरके लिये इकट्ठे हुए सब क्षत्रिय उनपर टूट पड़े। परन्तु अकेले भीष्मजीने उन सबको हरा दिया। जिनसे भीष्म अस्त्र-शस्त्रकी विद्या पढ़े थे, उन गुरु परशुरामजीके सामने भी उन्होंने अपनी हार स्वीकार नहीं की। इस प्रकार शस्त्रके विषयमें उनका क्षत्रियोंपर बड़ा प्रभाव था। जब भीष्म शरशय्यापर सोये थे, तब भगवान् श्रीकृष्णने धर्मराजसे कहा कि 'आपको धर्मके विषयमें कोई शंका हो तो भीष्मजीसे पूछ लें; क्योंकि शास्त्रज्ञानका सूर्य अस्ताचलको जा रहा है अर्थात् भीष्मजी इस लोकसे जा रहे हैं  (टिप्पणी प0 11) ।'   इस प्रकार शास्त्रके विषयमें उनका दूसरोंपर बड़ा प्रभाव था।  'पितामहः' इस पदका आशय यह मालूम देता है कि दुर्योधनके द्वारा चालाकीसे कही गयी बातोंका द्रोणाचार्यने कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने यही समझा कि दुर्योधन चालाकीसे मेरेको ठगना चाहता है इसलिये वे चुप ही रहे। परन्तु पितामह (दादा) होनेके नाते भीष्मजीको दुर्योधनकी चालाकीमें उसका बचपना दीखता है। अतः पितामह भीष्म द्रोणाचार्यके समान चुप न रहकर वात्सल्यभावके कारण दुर्योधनको हर्षित करते हुए शंख बजाते हैं।  'सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ'-- जैसे सिंहके गर्जना करनेपर हाथी आदि बड़े-बड़े पशु भी भयभीत हो जाते हैं ऐसे ही गर्जना करनेमात्रसे सभी भयभीत हो जायँ और दुर्योधन प्रसन्न हो जाय--इसी भावसे भीष्मजीने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया।  सम्बन्ध-- पितामह भीष्मके द्वारा शंख बजानेका परिणाम क्या हुआ इसको सञ्जय आगेके श्लोकमें कहते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।1.12।। दुर्योधन की मूर्खतापूर्ण वाचालता के कारण उसकी सेना के योद्धाओं की स्थिति बड़ी विचित्र सी हो रही थी। उन पर भी उदासी का प्रभाव प्रकट होने लगा जिसे भीष्म वहीं निकट खड़े देख रहे थे। भीष्म पितामह ने कर्मशील द्रोणाचार्य के मौन में छिपे क्रोध को समझ लिया। उन्होंने यह जाना कि इन सबको इस मनस्थिति से बाहर निकालने की आवश्यकता है अन्यथा स्थिति को इसी प्रकार छोड़ देने पर आसन्न युद्ध के समय योद्धागण प्रभावहीन हो जायेंगे। योद्धाओं के इस मनोभाव को समझते हुये सेनापति भीष्म पितामह ने दुर्योधन के साथ सभी सैनिकों के मन में हर्ष और विश्वास की तरंगें उत्पन्न करने के लिये पूरी शक्ति से शंखनाद किया।यद्यपि भीष्माचार्य का यह शंखनाद दुर्योधन के प्रति करुणा से प्रेरित था तथापि उसका अर्थ युद्धारम्भ की घोषणा करने वाला सिद्ध हुआ जैसे कि आधुनिक युद्धों में पहली गोली चलाकर युद्ध प्ररम्भ होता है। शंख के इस सिंहनाद के साथ महाभारत के युद्ध का प्रारम्भ हुआ और इतिहास की दृष्टि से कौरव ही आक्रमणकारी सिद्ध होते हैं।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।1.12।।तमेवमाचार्यंप्रति संवादं कुर्वन्तं भयाविष्टं राजानं दृष्ट्वा तदभ्याशवर्ती पितामहस्तद्बुद्ध्यनुरोधार्थमित्थं कृतवानित्याह  तस्येति।  राज्ञो दुर्योधनस्य हर्षं बुद्धिगतमुल्लासविशेषं परपरिभवद्वारा स्वकीयविजयद्वारकं सम्यगुत्पादयन् भयं तदीयमपनिनीपुरुच्चैः सिंहनादं कृत्वा शङ्खमापूरितवान्। किमिति दुर्योधनस्य हर्षमुत्पादयितुं पितामहो यतते कुरुवृद्धत्वात्तस्य कुरुराजत्वात् पितामहत्वाच्चास्य दुर्योधनभयापनयनार्था प्रवृत्तिरुचिता तदुपजीवितया तद्वशत्वाच्च तस्य च सिंहनादे शङ्खशब्दे च परेषां हृदयव्यथा संभाव्यते दूरादेवारिनिवहंप्रति भयजननलक्षणप्रतापत्वादित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।1.12।।एवं स्वस्याप्राधान्यं श्रुत्वा तूष्णीं स्थितभाचार्यं तं दृष्ट्वा खिन्नं स्वस्मिन्नतिभक्तिमन्तं दुर्योधनं चालक्ष्य भीष्मस्तस्य हर्षोत्पादने प्रवृत्त इत्याह  तस्येति।  दुर्योधनस्य हर्षं बुद्धिगतमुल्लासविशेषं सिंहनादशङ्खशब्दकरणद्वारकं सभ्यगुत्पादयंस्तदीयखेदापनयार्थमुच्चैः सिंहनादं विनद्य कृत्वा शङ्खं दध्मौ आपूरितवान्। कुरुवृद्धः पितामहः कुरुवृद्धत्वात् पितामहत्वात् तदुपजीवितया तद्वशत्वाच्च भीष्मस्योक्तार्थे प्रवृत्तिरुचितैवेति भावः। असामर्थ्यं वारयति  प्रतापवानिति।  कुरुवृद्धत्वादाचार्यदुर्योधनयोरभिप्रायपरिज्ञातं पितामहत्वादनुपेक्षणं नत्वाचार्यवदुपेक्षणमिति केचित्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।1.12।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।1.12।।तस्य एवं वदतो दुर्योधनस्य संजयवाक्यमिदम्। सिंहनादमिति णमुलन्तम्। तेन विनद्येत्यस्यानुप्रयोगः कषादित्वात्समूलकाषं कषतिस्म दैत्यान् इत्यादिवत्। कुरुवृद्धो भीष्मः। प्राग्विराटनगरादौ दृष्टप्रभावान्पाण्डवान्दृष्ट्वा राज्ञो भयं मा भूदिति शङ्खं दध्मौ। हर्षं युद्धोत्साहं जनयन्। हेत्वर्थे शतृप्रत्ययः। हर्षजननार्थमित्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।1.12।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

 ।।1.12।।  तदेवं बहुमानयुक्तं राज्ञो दुर्योधनस्य वाक्यं श्रुत्वा भीष्मः किं कृतवांस्तदाह  तस्येति।  तस्य राज्ञः हर्षं संजनयन् कुर्वन् पितामहो भीष्म उच्चैर्महान्तं सिंहनादं कृत्वा शङ्खं दध्मौ वादितवान्।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

1.12 इति दुर्योधनस्य जनयितव्यहर्षत्वेन पूर्वं विषादः स्वरसतया प्रतीयते। एतदभिप्रायेणोक्तंअन्तर्विषण्णोऽभवत् इति। परस्ताच्चस घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यादारयत् 1।19 इति धार्तराष्ट्रहृदयसंक्षोभ एवोच्यते। अत उपक्रमे प्रतिचमूतत्सेनापतिसमग्रभटवर्णनात् उपसंहारेऽपि शङ्खशब्दमात्रेण हृदयसंक्षोभवचनात् मध्ये जनयितव्यहर्षत्वेन विषादोत्पत्तितदपनयनसूचनात् एतच्छ्लोकस्वारस्याच्च उक्तार्थ एव तात्पर्यम्। अतस्तच्छब्दस्य तस्मादिति हेत्वर्थत्वमुपपन्नम्। अत एव विप्रकृष्टनिर्देशचोद्यं च परिहृतम्। न च परबलमिदानीं दुर्योधनस्य परोक्षम्दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् 1।2पश्यैताम् 1।3एतेषाम् 1।10 इत्यादिप्रत्यक्षनिर्देशात्।यत्तु भीष्मद्रोणादिरक्षितस्य स्वबलस्य दौर्बल्यप्रतीतिर्न युक्तेति तदप्यसत् सोपाधिकस्यापि भीष्मद्रोणादिवधस्य ज्ञातोपाधिना दुर्योधनेन शङ्कितत्वोपपत्तेः। यत्तुन भेतव्यम् इत्यादौ बहुशः स्वबलसामर्थ्यमुपन्यस्तम् इदानीं च तद्विपरीतप्रतीतौ हेतुर्नास्तीति तदपि न। यथाऽर्जुनो जिघांसया शरचापोद्यमनपर्यन्तं प्रवृत्तोऽपि हन्तव्यबन्धुसमुदायसन्निधिसन्दर्शनेनोल्बणैः स्नेहकारुण्यधर्माधर्मभयैराकुलीकृतः पुनर्भगवता पर्यवस्थाप्यते तथाऽत्रापि दृढघटितव्यूहबहुमहाभटनिबिडप्रतिभटबलसाक्षात्कारादुल्बणभयविषादो दुर्योधनो भीष्मेण पर्यवस्थाप्यत इति किमनुपपन्नम्। प्रत्यक्षितं च दुर्योधनेन गोग्रहणस्वग्रहणादिवृत्तान्तेषु सर्वेभ्यः स्वबलभटेभ्यः परेषां सामर्थ्यम्। न चेदानीं तन्न स्मरति वदति हि स्वयमेवअकारादीनि नामानि अर्जुनत्रस्तचेतसः म.भा. इति। यत्तु द्वितीयदिवसारम्भोक्तवचनव्यक्तिवदत्रापि वचनव्यक्तिः कार्येति। तदपि मन्दम्। न ह्यवश्यमेकदेशसादृश्यात् सर्वथासादृश्येन भवितव्यमिति नियमः। प्रथमद्वितीयदिवसयोरभिप्रायभेदोऽनुपपन्न इति चेत् न युद्धसिद्धेश्चञ्चलत्वाद्यनुसन्धानेन विषमत्वादभिप्रायपद्धतेः। किंचात्राचार्यभीष्माभ्यां सह व्यूहान्तरमार्गेषु यथाभागमवस्थापनसेनासंरक्षणादिहितनिरूपणे प्रवृत्तत्वादेवमभिप्राय उपपन्नः। तदेतद्दर्शितंआचार्याय निवेद्यान्तर्विषण्णोऽभवदिति।द्वितीयदिवस तु स्वसहायभूतेभ्यः सर्वेभ्यः पार्थिवेभ्यः स्वधैर्यप्रकाशने बलसान्त्वनादौ च प्रवृत्तत्वात् तथा व्यवहार इति न कश्चिद्दोषः। तदेतदखिलमभिप्रेत्यदृष्ट्वा तु इति तुशब्दः प्रयुक्तः। इदं च प्रारम्भे दैवोपहतस्य दुर्योधनस्यातर्कितागतविषादमूलं स्वबलस्यापर्याप्तत्ववचनमागामिनमपजयं सूचयति। अतः सर्वजनपठितपाठस्वरससिद्धार्थस्य निर्दोषत्वात् पाठभेदादिपक्षाः परिक्षीणाः पाठभेदव्यवहितान्वयवाक्यंभेदाप्रसिद्धार्थकल्पनादीनामेव च प्रबलदूषणत्वात्। वाक्यभेदयोजनायां तु प्रतिज्ञाद्वये हेतुद्वयस्य यथाक्रमं तावदन्वयो न घटते। यो हि प्रबलो दुर्बलो वा यद्बलं रक्षति स तस्य पर्याप्तावपर्याप्तौ वा हेतुः स्यात् न तु तत्प्रतिबलस्य फलतस्तथानिर्देश इति चेत् तथाप्यस्वारस्यम्। प्रातिलोम्येन हेत्वोरन्वय इति चेत् तर्हि व्यवहितान्वयोऽप्यागतः। हेतुद्वयं समुच्चित्य प्रत्येकं प्रतिज्ञायां योज्यत इति चेत् तथापि व्यवहितान्वयास्वारस्ययोर्न परिहारः समुच्चायकशब्दाभावश्चाधिको दोषः। एवं दूषणान्तराण्यपि भाव्यानि। अतो यथाभाष्यमेवार्थ इति।।।1.12।।तस्य सञ्जनयन् इत्यादेःतुमुलोऽभवत् इत्यन्तस्यार्थमाह तस्येति। जनयन्निति शतुःलक्षणहेत्वोः क्रियायाः अष्टा.3।2।126 इति हेत्वर्थत्वसूचनायजनयितुं इत्युक्तम्।सिंहनादं विनद्य इत्येतत्ओदनपाकं पचति इतिवदिति सूचयितुंकृत्वा इति पदम्।कृभ्वस्तयः क्रियासामान्यवचनाः इत्येतद्व्यञ्जनायोदाहरणतयाशङ्खाध्मानं च कृत्वा इत्युक्तम्।ततः शङ्खाः इत्यत्र ततःशब्देन विजिगीषासूचनाय भीष्मेण सेनापतिना कारितत्वं ज्ञापितमित्यभिप्रायेणोक्तंअकारयदिति।शङ्खभेरीति पणवाद्युपलक्षणम् ततः श्लोकेऽपि कतिपयवाद्यविशेषनिर्देश उपलक्षणार्थ इति सूचितम्। सिंहनादशङ्खध्मानाभ्यां शङ्खभेर्यादिनादसमुच्चयार्थो द्वितीयश्चकारः। कृत्वेत्यनेन अकारयदित्यस्य समुच्चयार्थस्तृतीयः।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।1.12।।No commentary.

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।1.12।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।1.12।।स्तौतु वा निन्दतु वा एतदर्थे देहः पतिष्यत्येवेत्याशयेन तं हर्षयन्नेव सिंहनादं विनद्य शङ्खवाद्यं च कारितवानित्याह। एवं पाण्डवसैन्यदर्शनादतिभितस्य भयनिवृत्त्यर्थमाचार्यं कपटेन शरणं गतस्य इदानीमप्ययं मां प्रतारयतीत्यसंतोषवशादाचार्येण वाङ्यात्रेणाप्यनादृतस्याचार्योपेक्षां बुद्धा अयनेष्वित्यादिना भीष्मेव स्तुवतस्तस्य राज्ञो भयनिवर्तकं हर्षं बुद्धिगतमुल्लासविशेषं स्वविजयसूचकं जनयन्नुच्चैर्महान्तं सिंहनादं विनद्य कृत्वा। यद्वा सिंहनादमिति णमुलन्तम्। अतो रैपोषं पुष्यतीतिवत्तस्यैव धातोः पुनः प्रयोगः। शङ्ख दध्मौ वादितवान्। कुरुवृद्धत्वादाचार्यदुर्योधनयोरभिप्रायपरिज्ञानं पितामहत्वादनुपेक्षणं नत्वाचार्यवदुपेक्षणं प्रतापवत्त्वादुच्चैः सिंहनादपूर्वकशङ्खवादनं परेषां भयोत्पादनाय। अत्र सिंहनादशङ्खवाद्ययोर्हर्षजनकत्वेन पूर्वापरकालत्वेऽप्यभिचरन्यजेतेतिवज्जनयन्निति शताऽवश्यंभावित्वरूपवर्तमानत्वे व्याख्यातव्यः।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।1.12।।सेनापतिरेव रक्षणीय इत्येवं स्वबहुमानप्रतिपादकं राजवाक्यं श्रुत्वा राज्ञो हर्षमुपजनयन् भीष्मः स्वबलख्यापकं शङ्खनादं कृतवानित्याह तस्येति। तस्य राज्ञः हर्षं सम्यक् प्रकारेण योत्स्यामि इत्यादिरूपेण जनयन्। भीष्मस्य भक्तत्वात्स्वपराजयज्ञानेन स्वतो हर्षेण न शङ्खादिवादनं किन्तु दुर्योधनस्य वाक्यं श्रुत्वा भगवदिच्छां ज्ञात्वा तस्य राज्ञः हर्षजननार्थं तथा कृतवानिति बोधयितुमेवमुक्तम्। कुरुवृद्धः कुरूणां कुरुषु वा वृद्धः देशकालोचितज्ञानः पितामह इति हर्षजनने हेतुरुक्तः भीष्मः उच्चैरूर्ध्वमुखं यथा स्यात्तथा महान्तं वा सिंहनादं विनद्य स्वप्रौढिज्ञापकं गर्जनं कृत्वा प्रतिभटः कोऽपि नास्तीति ज्ञापयन् शंखं दध्मौ वादितवान्। ननु राज्ञा बहुमाने कृतेऽपि राज्ञोऽग्रे तथा विनादं शङ्खादिवादनं च न कर्त्तव्यं तत्कथं कृतवानित्याशङ्क्याह प्रतापवानिति। नादेनैव शत्रुजयः सूच्यते।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

1.12 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।1.12 1.13।।ततस्तद्विषादमवलोक्य भीष्मस्तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खनादं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैर्विजयाभिशंसकं घोषं चाकारयत्।


Chapter 1, Verse 12