या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।
yā niśhā sarva-bhūtānāṁ tasyāṁ jāgarti sanyamī yasyāṁ jāgrati bhūtāni sā niśhā paśhyato muneḥ
yā—which; niśhā—night; sarva-bhūtānām—of all living beings; tasyām—in that; jāgarti—is awake; sanyamī—self-controlled; yasyām—in which; jāgrati—are awake; bhūtāni—creatures; sā—that; niśhā—night; paśhyataḥ—see; muneḥ—sage
What is night for all beings, in it the one who is controlled is awake; when all beings are awake, that is the night for the sage who sees.
The self-restrained man stays awake during what is night for all creatures. That which creatures stay awake for, it is night to the discerning sage.
That which is night to all beings, in that the self-controlled man is awake; when all beings are awake, that is night for the sage who sees.
What is night for every other being, in that a man of self-restraint is awake; wherein every other being is awake, that is night for the sage who sees the truth.
The saint is awake when the world sleeps, and he disregards that for which the world lives.
।।2.69।। सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।
।।2.69।। सब प्रणियों के लिए जो रात्रि है? उसमें संयमी पुरुष जागता है और जहाँ सब प्राणी जागते हैं? वह (तत्त्व को) देखने वाले मुनि के लिए रात्रि है।।
2.69 या which? निशा night? सर्वभूतानाम् of all beings? तस्याम् in that? जागर्ति wakes? संयमी the selfcontrolled? यस्याम् in which? जाग्रति wake? भूतानि all beings? सा that? निशा night? पश्यतः (of the) seeing? मुनेः of the Muni.Commentary That which is real for the wordlyminded people is illusion for the sage? and vice versa. The sage lives in the Self. This is day for him. He is unconscious of the wordly phenomena. They are night for him? as it were. The ordinary man is unconscious of his real nature. Life in the spirit is night for him. He is experiencing the objects of sensual enjoyment. This is day for him. The Self is a nonentity for him For a sage this world is a nonentity.The wordlyminded people are in utter darkness as they have no knowledge of the Self. What is darkness for them is all light for the sage. The Self? Atman or Brahman is night for the worldlyminded persons. But the sage is fully awake. He is directly cognising the supreme Reality? the Light of lights. He is full of illumination and AtmaJnana or knowledge of the Self.
2.69।। व्याख्या-- 'या निशा सर्वभूतानाम्'--जिनकी इन्द्रियाँ और मन वशमें नहीं हैं, जो भोगोंमें आसक्त है, वे सब परमात्मतत्त्वकी तरफसे सोये हुए हैं। परमात्मा क्या है? तत्त्वज्ञान क्या है? हम दुःख क्यों पा रहे हैं? सन्तापजलन क्यों हो रही है? हम जो कुछ कर रहे हैं? उसका परिणाम क्या होगा?--इस तरफ बिलकुल न देखना ही उनकी रात है, उनके लिये बिलकुल अँधेरा है। यहाँ 'भूतानाम्' कहनेका तात्पर्य है कि जैसे पशु-पक्षी आदि दिनभर खाने-पीनेमें लगे रहते हैं, ऐसे ही जो मनुष्य रातदिन खाने-पीनेमें, सुख-आराममें, भोगों और संग्रहमें, धन कमानेमें ही लगे हुए हैं, उन मनुष्योंकी गणना भी पशु-पक्षी आदिमें ही है। कारण कि परमात्मतत्त्वसे विमुख रहनेमें पशुपक्षी आदिमें और मनुष्योंमें कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही परमात्मतत्त्वकी तरफसे सोये हुए हैं। हाँ, अगर कोई अन्तर है तो वह इतना ही है कि पशु-पक्षी आदिमें विवेक-शक्ति जाग्रत् नहीं है इसिलिये वे खानेपीने आदिमें ही लगे रहते हैं; और मनुष्योंमें भगवान्की कृपासे वह विवेक-शक्ति जाग्रत है, जिससे वह अपना कल्याण कर सकता है, प्राणिमात्रकी सेवा कर सकता है, परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है। परन्तु उस विवेक-शक्तिका दुरूपयोग करके मनुष्य पदार्थोंका संग्रह करनेमें एवं उनका भोग करनेमें लग जाते हैं, जिससे वे संसारके लिये पशुओंसे भी अधिक दुःखदायी हो जाते हैं। कारण कि पशु-पक्षी तो बेचारे जितनेसे पेट भर जाय, उतना ही खाते हैं, संग्रह नहीं करते; परन्तु मनुष्यको कहीं भी जो कुछ पदार्थ आदि मिल जाता है, वह उसके काममें आये चाहे न आये, उसका तो वह संग्रह कर ही लेता है और दूसरोंके काममें आनेमें बाधा डाल देता है। 'तस्यां जागर्ति संयमी'-- मनुष्योंकी जो रात है अर्थात् परमात्माकी तरफसे, अपने कल्याणकी तरफसे जो विमुखता है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है। जिसने इन्द्रियों और मनको वशमें किया है, जो भोग और संग्रहमें आसक्त नहीं है, जिसका ध्येय केवल परमात्मा है, वह संयमी मनुष्य है। परमात्मतत्त्वको, अपने स्वरूपको, संसारको यथार्थ-रूपसे जानना ही उसका रातमें जागना है। 'यस्यां जाग्रति भूतानि'-- जो भोग और संग्रहमें बड़े सावधान रहते हैं, एक-एक पैसेका हिसाब रखते हैं, जमीनके एक-एक इंचका खयाल रखते है; जितने रूपये अधिकारमें आ जायँ वे चाहे न्यायपूर्वक हों अथवा अन्यायपूर्वक, उसमें वे बड़े खुश होते हैं कि इतनी पूँजी तो हमने ले ही ली है, इतना लाभ तो हमें हो ही गया है--इस तरह वे सांसारिक क्षणभङ्गुर भोगोंको बटोरनेमें और आदर-सत्कार, मान-बड़ाई आदि प्राप्त करनेमें ही लगे रहते हैं, उनमें बड़े सावधान रहते हैं यही उन लोगोंका जागना है। 'सा निशा पश्यतो मुनेः'-- जिन सांसारिक पदार्थोंका भोग और संग्रह करनेमें मनुष्य अपनेको बड़ा बुद्धिमान्, चतुर मानते हैं और उसीमें राजी होते हैं, संसार और परमात्मतत्त्वको जाननेवाले मननशील संयमी मनुष्यकी दृष्टिमें वह सब रातके समान है; बिलकुल अँधेरा है। जैसे, बच्चे खेलते हैं तो वे कंकड़-पत्थर, काँचके लाल-पीले टुकड़ोंको लेकर आपसमें लड़ते हैं। अगर वह मिल जाता है तो राजी होते हैं कि मैंने बहुत बड़ा लाभ उठा लिया और अगर वह नहीं मिलता तो दुःखी हो जाते हैं कि मेरी बड़ी भारी हानि हो गयी। परन्तु जिसके मनमें कंकड़-पत्थर आदिका महत्त्व नहीं है, ऐसा समझदार व्यक्ति समझता है कि इन कंकड़-पत्थरोंके मिलनेसे क्या लाभ हुआ और न मिलनेसे क्या हानि हुई? इन बच्चोंको अगर कंकड़-पत्थर मिल भी जायँगे, तो ये कबतक उनके साथ रहेंगे? इसी तरह भोग और संग्रहमें लगे हुए मनुष्य भोगोंके लिये लड़ाई-झगड़ा, झूठ-कपट, बेईमानी आदि करते हैं और उनको प्राप्त करके राजी होते हैं, खुशी मनाते हैं कि हमने बहुत लाभ ले लिया। परन्तु संसारको और परमात्मतत्त्वको जाननेवाला मननशील संयमी मनुष्य साफ देखता है कि भोग मिल गये, आदर-सत्कार हो गया, सुखआराम हो गया, खा-पी लिया, खूब श्रृंगार कर लिया तो क्या हो गया? इसमें मनुष्योंको क्या मिला? इनमेंसे इनके साथ क्या चलेगा? ये कबतक इन भोगोंको साथमें रखेंगे? इन भोगोंसे होनेवाली वृत्ति कितने दिनतक ठहरेगी? इस तरह उसकी दृष्टिमें प्राणियोंका जागना रातके समान है। वह मननशील संयमी मनुष्य परमात्माको, अपने स्वरूपको और संसारके परिणामको तो जानता ही है, वह पदार्थोंको भी अच्छी तरहसे जानता है कि कौन-सा पदार्थ किसके हितमें लग सकता है, इससे दूसरोंको कितना लाभ होगा। वह पदार्थोंका अपनी-अपनी जगह ठीक तरहसे सदुपयोग करता है। उनको दूसरोंकी सेवामें लगाता है। जैसे नेत्रोंमे दोष होनेपर जब हम आकाशको देखते हैं, तब उसमें जाले-से दीखते हैं और आँखें मीच लेनेपर भी मोर-पंखकी तरह वे जाले दीखते हैं; परन्तु उनके दीखनेपर भी हमारी बुद्धिमें यह अटल निश्चय रहता है कि आकाशमें जाले नहीं है। ऐसे ही इन्द्रियों और अन्तःकरणके द्वारा संसार दीखनेपर भी मननशील संयमी मनुष्यकी बुद्धिमें यह अटल निश्चय रहता है कि वास्तवमें संसार नहीं है, केवल प्रतीतिमात्र है। सम्बन्ध-- मननशील संयमी मनुष्यको संसार रातकी तरह दीखता है। इसपर यह प्रश्न उठता है कि क्या वह सांसारिक पदार्थोंके सम्पर्कमें आता ही नहीं? अगर नहीं आता तो उसका जीवननिर्वाह कैसे होता है? और अगर आता है तो उसकी स्थिति कैसे रहती है इन बातोंका विवेचन करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।
।।2.69।। ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टियों के बीच के भेद को स्पष्ट करना इस श्लोक का प्रयोजन है। शरीर और मन की उपाधियों के माध्यम से अनुभूत जगत् अध्यात्म के खुले वातायन से देखे गये हृदय से भिन्न होता है। यहाँ रूपक की भाषा में सिद्धांत को इतने पूर्ण रूप से कहा गया है कि अनेक शुष्क तर्क करने वाले लोग उसमें निहित काव्य के सौन्दर्य को देख नहीं पाते। काव्य और ज्ञान का समन्वय करना आर्य लोगों की विशेषता है और जब दार्शनिक कवि व्यास जी पूर्णत्व के आनन्द को व्यक्त करने के लिये अपनी लेखनी और भोजपत्र उठाते थे तब वे गीता में कविता से श्रेष्ठ अन्य कोई माध्यम प्रयुक्त नहीं कर सकते थे।अज्ञानी पुरुष जगत् को यथार्थ रूप में कभी नहीं देखता वह जगत् को अपने मन के रंग में रंगकर देखता है और फिर बाह्य वस्तुओं को ही दोषयुक्त समझता है। रंगीन चश्मे द्वारा जगत् को देखने पर वह रंगीन ही दिखाई देगा किन्तु जब कांच को हटा देते हैं तब वह जगत् जैसा है वैसा ही प्रतीत होता है।आज जब हम शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से जगत् को देखते हैं तब वह स्वाभाविक ही परिच्छिन्न और दोषयुक्त अनुभव होता है किन्तु यह सब दोष उपाधियों का ही है। स्थितप्रज्ञ पुरुष अपनी ज्ञान की दृष्टि से जब देखता है तब उसे पूर्णत्व और आनन्द का ही अनुभव होता है।जब एक विद्युत अभियन्ता (इंजीनियर) किसी महानगर में पहुँचता है जहाँ संध्या के समय से ही सभी दिशाओं में विद्युत का प्रकाश जगमगाता है तब वह प्रश्न करता है कि यह ए.सी. है या डी. सी. जबकि उसी दृश्य को एक अनपढ़ ग्रामीण व्यक्ति आश्चर्य चकित होकर देखते हुए चिल्ला उठता है कि बिना तेल और बत्ती के प्रकाश को मैं देख रहा हूँ उस ग्रामीण की दृष्टि से वहां न विद्युत है और न ए. सी. डी. सी. की समस्या उस अभियन्ता की दृष्टि ग्रामीण को अज्ञात है और वह अभियन्ता भी उस ग्रामीण के आश्चर्य को समझ नहीं पाता।इस श्लोक में यह बताया गया है कि अज्ञानी र्मत्य जीव आत्मस्वरूप के प्रति सोया हुआ है जिसके प्रति ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से जागरूक है। जिन सांसारिक विषयों के प्रति अज्ञानी लोग सजग होकर व्यवहार करते हैं और दुख भोगते हैं स्थितप्रज्ञ पुरुष उसे रात्रि अर्थात् अज्ञान की अवस्था ही समझते हैं।जिसने समस्त कामनाओं का त्याग किया वही ज्ञानी भक्त मोक्ष प्राप्त करता है और कामी पुरुष कभी नहीं। इसे एक दृष्टान्त द्वारा भगवान् समझाते हैं
।।2.69।।आत्मविदः स्थितप्रज्ञस्य सर्वकर्मपरित्यागेऽधिकारस्तद्विपरीतस्याज्ञस्य कर्मणीत्येतस्मिन्नर्थे समनन्तरश्लोकमवतारयति योऽयमिति। अविद्यानिवृत्तौ सर्वकर्मनिवृत्तिश्चेत्तन्निवृत्तिरेव कथमित्याशङ्क्याह अविद्यायाश्चेति। स्फुटीकुर्वन् बाह्याभ्यन्तरकरणानां पराक्प्रत्यक्प्रवृत्तिवत्तथाविधे दर्शने च मिथो विरुध्येते पराग्दर्शनस्यानाद्यात्मावरणाविद्याकार्यत्वादात्मदर्शनस्य च तन्निवर्तकत्वात्ततश्चात्मदर्शनार्थमिन्द्रियाण्यर्थेभ्यो निगृह्णीयादित्याहेति योजना। सर्वप्राणिनां निशा पदार्थाविवेककरीत्यत्र हेतुमाह तमःस्वभावत्वादिति। सर्वप्राणिसाधारणीं प्रसिद्धां निशां दर्शयित्वा तामेव प्रकृतानुगुणत्वेन प्रश्नपूर्वकं विशदयति किं तदित्यादिना। स्थितप्रज्ञविषयस्य परमार्थतत्त्वस्य प्रकाशैकस्वभावस्य कथमज्ञानं प्रति निशात्वमित्याशङ्क्याह यथेति। तत्र हेतुमाह अगोचरत्वादिति। अतद्बुद्धीनां परमार्थतत्त्वातिरिक्ते द्वैतप्रपञ्चे प्रवृत्तबुद्धीनामप्रतिपन्नत्वात् परमार्थतत्त्वं निशेवाविदुषामित्यर्थः। तस्यामित्यादि व्याचष्टे तस्यामिति। निशावदुक्तायामवस्थायामिति यावत् योगीति ज्ञानी कथ्यते। द्वितीयार्धं विभजते यस्यामिति। प्रसुप्तानां जागरणं विरुद्धमित्याशङ्क्याह प्रसुप्ता इवेति। परमार्थतत्त्वमनुभवतो निवृत्ताविद्यस्य संन्यासिनो द्वैतावस्था निशेत्यत्र हेतुमाह अविद्यारूपत्वादिति। परमार्थावस्था निशेत्यविदुषां विदुषां तु द्वैतावस्था तथेति स्थिते फलितमाह अत इति। अविद्यावस्थायामेव क्रियाकारकफलभेदप्रतिभानादित्यर्थः। विद्योदयेऽपि तत्प्रतिभानाविशेषात्पूर्वमिव कर्माणि विधीयेरन्नित्याशङ्क्याह विद्यायामिति। अविद्यानिवृत्तौ बाधितानुवृत्त्या विभागभानेऽपि नास्ति कर्मविधिर्विभागाभिनिवेशाभावादित्यर्थः। अविद्यावस्थायामेव कर्मणीत्युक्तं व्यक्तीकरोति प्रागिति। विद्योदयात्पूर्वं बाधकाभावादबाधिता विद्या क्रियादिभेदमापाद्य प्रमाणरूपया बुद्ध्या ग्राह्यतां प्राप्य कर्महेतुर्भवति क्रियादिभेदाभिमानस्य तद्धेतुत्वादित्यर्थः। न विद्यावस्थायामित्युक्तं प्रपञ्चयति नाप्रमाणेति। उत्पन्नायां च विद्यायामविद्याया निवृत्तत्वात् क्रियादिभेदभानमप्रमाणमिति बुद्धिरुत्पद्यते तथा गृह्यमाणा यथोक्तविभागभागिन्यप्यविद्या न कर्महेतुत्वं प्रतिपद्यते बाधितत्वेनाभासतया तद्धेतुत्वायोगादित्यर्थः। विद्याविद्याविभागेनोक्तमेव विशेषं विवृणोति प्रमाणभूतेनेति। यथोक्तेन वेदेन कामनाजीवनादिमतो मम कर्म विहितं तेन मया तत्कर्तव्यमिति मन्वानः सन् कर्मण्यज्ञोऽधिक्रियते तं प्रति साधनविशेषवादिनो वेदस्य प्रवर्तकत्वादित्यर्थः। सर्वमेवेदमविद्यामात्रं द्वैतं निषेवेतेति मन्वानस्तु न प्रवर्तते कर्मणीति व्यावर्त्यमाह नाविद्येति। विदुषो न कर्मण्यधिकारश्चेत्तस्याधिकारस्तर्हि कुत्रेत्याशङ्क्याह यस्येति। तस्यात्मज्ञस्य फलभूतसंन्यासाधिकारे वाक्यशेषं प्रमाणयति तथाचेति। प्रवर्तकं प्रमाणं विधिस्तदभावे कर्मस्विव विदुषो ज्ञाननिष्ठायामपि प्रवृत्तेरनुपपत्तेराश्रयणीयो ज्ञानवतोऽपि विधिरिति शङ्कते तत्रापीति। किमात्मज्ञानं विधिमपेक्षते किं वात्मा। नाद्यः। तस्य स्वरूपविषयस्य यथा प्रमाणप्रमेयमुत्पत्तेर्विध्यनपेक्षत्वादित्याह न स्वात्मेति। न द्वितीय इत्याह नहीति। प्रवर्तकप्रमाणशब्दितस्य विधेः साध्यविषयत्वादात्मनश्चासाध्यत्वादिति हेतुमाह आत्मत्वादेवेति। आत्मतज्ज्ञानयोर्विध्यनपेक्षत्वेऽपि ज्ञानिनो मानमेव व्यवहारं प्रति नियमार्थं विध्यपेक्षा स्यादित्याशङ्क्याह तदन्तत्वाच्चेति। सर्वेषां प्रमाणानां प्रामाण्यस्यात्मज्ञानोदयावसानत्वात्तस्मिन्नुत्पन्ने व्यवहारस्य निरवकाशत्वान्न तत्प्रति नियमाय ज्ञानिनो विधिरित्यर्थः। उक्तमेव व्यक्तीकरोति नहीति। धर्माधिगमवदात्माधिगमेऽपि किमिति यथोक्तो व्यवहारो न भवतीत्याशङ्क्याह प्रमातृत्वंहीति। तन्निवृत्तौ कथमद्वैतज्ञानस्य प्रामाण्यमित्याशङ्क्याह निवर्तयदेवेति। निवर्तयदद्वैतज्ञानं स्वयं निवृत्तेर्न प्रमाणमित्यत्र दृष्टान्तमाह स्वप्नेति। आत्मज्ञानस्य विध्यनपेक्षत्वे हेत्वन्तरमाह लोके चेति। व्यवहारभूमौ हि प्रमाणस्य वस्तुनिश्चयफलपर्यन्तत्वे सति प्रवर्तकविधिसापेक्षत्वानुपलम्भादद्वैतज्ञानमपि प्रमाणवान्न विधिमपेक्षते रज्ज्वादिज्ञानवदित्यर्थः। आत्मज्ञानवतस्तन्निष्ठाविधिमन्तरेण ज्ञानमाहात्म्येनैव सिद्धत्वात्तस्य कर्मसंन्यासेऽधिकारो न कर्मणीत्युपसंहरति तस्मादिति।
।।2.69।। एवं स्थितप्रज्ञलक्षणवर्णनेन मुमुक्षुभिरतियत्नेन स्थितप्रज्ञत्वाय समनस्केन्द्रियनिग्रहः कर्तव्य इत्युक्तम्। उत्पन्नविवेकविज्ञानस्य स्थितप्रज्ञस्य तु स्वतःसिद्ध एव समनस्केन्द्रियसंयमः। अविद्याविरोधिन्या विद्यया समूलस्य सर्वव्यवहारस्य निवृत्तेरित्येतद्वक्तुकामोऽविद्यावस्थायामेव कर्माणि विधीयन्ते न विद्यावस्थायामिति द्योतयन्नाह येति। सर्वभूतानामुलूकस्थानीयानां या निशेव निशा रात्रिः परमार्थतत्त्वलक्षणा तस्यामज्ञाननिद्रातः प्रबुद्धः संयमी स्थितप्रज्ञो ज्ञानयोगी जागर्ति यस्यां ग्राह्यग्राहकलक्षणायामविद्यायां भूतानि जाग्रति सा पश्यतो मुनेर्निशेव निशेत्यर्थः।
।।2.69।।उक्तं लक्षणं पिण्डीकृत्याह या निशेति। या सर्वभूतानां निशा परमेश्वरस्वरूपलक्षणा। यस्यां सुप्तानीव न किञ्चिज्जानन्ति तस्यामिन्द्रियसंयुक्तो ज्ञानी जागर्ति सम्यगापरोक्ष्येण पश्यति परमात्मानमित्यर्थः। यस्यां विषयलक्षणायां भूतानि जाग्रति तस्यां निशायामिव सुप्तः प्रायो न जानाति। मत्तादिवद्गमनादिप्रवृत्तिः। तदुक्तम्देहं (च तं न चरमः) तु तत्र चरमम् भाग.3।28।37देहोऽपि दैववशगः भाग.3।28।3811।13।37 इति श्लोकाभ्याम्। मननयुक्तो मुनिः। पश्यत इत्यस्य साधनमाह।
।।2.69।।यदा पञ्चावतिष्ठन्ते इत्युदाहृतश्रुतेःतामाहुः परमां गतिम् इत्येतं चतुर्थं पादं व्याचष्टे या निशेति। सर्वेषां भूतानामज्ञानां या निशेव निशा यस्यां मध्यंदिने उलूका इवानन्धा अप्यन्धा एव सर्वे प्राणिनो भवन्ति तस्यां तस्मिन्प्रत्यग्ज्योतिषि संयमी इन्द्रियमनोबुद्धीनां निग्रहणशीलो योगी जागर्ति इन्द्रियादीनां दृक्शक्तिलोपेऽप्यनुपरतदृक्शक्तिरेवास्ते। तथा च श्रुतिःनहि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात् इति। यस्यामविद्याख्यायां निशायां क्रियाकारकादिद्वैतस्वप्नप्रवर्तिकायां सर्वाणि भूतानि जाग्रति निशीथे उलूका इव स्वस्वव्यापारे प्रवर्तन्ते सा अविद्या पश्यतो मुनेः आत्मदर्शनवतो योगिनः प्रारब्धकर्मणा विदेहकैवल्यप्रतिबन्धाल्लेशतोऽनुवर्तमाना व्युत्थानकाले व्यवहारतोऽस्य गाढान्धकारवती निशेव क्लेशकरी भवति। अतिसुकुमारा हि योगिनो बाह्यव्यवहारादुद्विजन्ते नरा इव गाढान्धकारे संचारात्। यथोक्तं योगभाष्येअक्षिमात्रकल्पो हि विद्वानत्यल्पदुःखलेशेनाप्युद्विजते इति। अत्र वार्तिकानिकारकव्यवहारे हि शुद्धं वस्तु न वीक्ष्यते। शुद्धे वस्तुनि सिद्धे च कारकव्यापृतिस्तथा। काकोलूकनिशेवायं संसारोऽज्ञात्मवेदिनोः। या निशा सर्वभूतानामित्यवोचत्स्वयं हरिः। इति।बुद्धतत्त्वस्य लोकोऽयं जडोन्मत्तपिशाचवत्। बुद्धतत्त्वोऽपि लोकस्य जडोन्मत्तपिशाचवत्। इति। तदेवं किमासीतेत्यस्योत्तरंयदा संहरते चायम् इत्यादिना एतदन्तेन ग्रन्थेन स्थितप्रज्ञः सदा समाधिमनुतिष्ठन्परमां गतिं प्राप्यास्त इत्युक्तम्।
।।2.69।। या आत्मविषया बुद्धिः सर्वभूतानां निशा निशा इव अप्रकाशिका। तस्याम् आत्मविषयायां बुद्धौ इन्द्रिय संयमी प्रसन्नमना जागर्ति आत्मानम् अवलोकयन् आस्ते इत्यर्थः। यस्यां शब्दादिविषयायां बुद्धौ सर्वाणि भूतानि जाग्रति प्रबुद्धानि भवन्ति सा शब्दादिविषया बुद्धिः आत्मानं पश्यतो मुनेः निशा इव अप्रकाशिका भवति।
।।2.69।।ननु च कश्चिदपि प्रसुप्त इव दर्शनादिव्यापारशून्यः सर्वात्मना निगृहीतेन्द्रियो लोके न दृश्यते अतोऽसंभावितमिदं लक्षणमित्याशङ्क्याह या निशेति। सर्वेषां भूतानां या निशा निशेव निशा आत्मनिष्ठा आत्माज्ञानध्वान्तावृतमतीनां तस्यां दर्शनादिव्यवहाराभावात् तस्यामात्मनिष्ठायां संयमी निगृहीतेन्द्रियो जागर्ति प्रबुध्यते यस्यां तु विषयबुद्ध्या भूतानि जाग्रति प्रबुद्ध्यन्ते सा आत्मतत्त्वं पश्यतो मुनेर्निशा। तस्यां दर्शनादिव्यापारस्तस्य नास्तीत्यर्थः। एतदुक्तं भवति। यथा दिवान्धानामुलूकादीनां रात्रावेव दर्शनं न तु दिवसे एवं ब्रह्मज्ञस्योन्मीलिताक्षस्यापि ब्रह्मण्येव दृष्टिर्नतु विषयेषु। अतो नासंभावितमिदं लक्षणमिति।
।।2.66 2.70।।रागद्वेषेत्यादि प्रतिष्ठितेत्यन्तम्। यस्तु मनसो नियामकः स विषयान् सेवमानोऽपि न क्रोधादिकल्लोलैरभिभूयते इति स एव स्थितप्रज्ञो योगीति तात्पर्यम्।
।।2.69।।ज्ञानिनः सर्वकर्मत्यागप्रतिपादनार्थायया निशा इत्ययं श्लोक इति कश्चित्। तत्र तत्प्रतिपादकाक्षराश्रवणात् प्रमाणविरोधाच्चेत्याशयेन तत्प्रतिपाद्यमाह उक्तलक्षण मिति चतुश्श्लोक्या विक्षिप्योक्तम्। नन्वत्रोक्तं किमपि न प्रतीयत इत्यत आह ये ति। परमेश्वरस्वरूपस्य निशासाम्यमुपपादयति यस्या मिति। विषयत्वमधिकरणत्वं चाविवक्षित्वा कारकत्वमात्रविवक्षया साम्यमिदमुक्तम्। संयमीत्यस्याक्षरार्थं इन्द्रिये ति प्रकरणलभ्योऽर्थो ज्ञानी ति। उत्तरार्धार्थमाह यस्या मिति। अत्रापि पूर्ववत्साम्यम्। यदि न किञ्चित्पश्यति कथं तर्हि तस्य गमनादिप्रवृत्तिः इत्यत आह मत्तादिव दिति। कुत एतत् इत्यत आह तदुक्त मिति। मुनेरित्युक्तत्वाच्चतुर्थाश्रमिण एव ज्ञानमिति व्याख्यानमसदिति भावेनाह मननयुक्त इति। याज्ञवल्क्यादीनामयतीनामपि ज्ञानश्रवणादिति भावः। मननस्य प्राङ्निवृत्तत्वात्पश्यतो मुनेः इति कथं इत्यत आह पश्यत इति। दर्शनसाधनत्वेन मननमिहोक्तं न तु तत्समकालीनतयेत्यर्थः। एतच्च प्राङ्मननादेः स्पष्टदर्शनसाधनत्वानुक्तेः प्रसङ्गादिहोक्तम्। ननुस्थितधीः किं प्रभाषेत 2।54 इत्याद्यु(देरु)त्तरमयं श्लोक इति प्रागुक्तं तत्कथमिदानीं लक्षणपरतया व्याख्यातः अन्यपरादपि तल्लाभ इत्याशयेनेति ब्रूमः अन्यथाप्रभाषेत इत्यादेरुत्तरमाहेत्यत्रैवावेक्ष्यत् किं तत्र स्थानप्रदर्शनादिना इति।
।।2.69।।तदेवं मुमुक्षुणा प्रज्ञास्थैर्याय प्रयत्नपूर्वकमिन्द्रियसंयमः कर्तव्य इत्युक्तं स्थितप्रज्ञस्य तु स्वतःसिद्ध एव सर्वेन्द्रियसंयम इत्याह। या वेदान्तवाक्यजनितसाक्षात्काररूपाऽहंब्रह्मास्मीति प्रज्ञा सर्वभूतानामज्ञानां निशेव निशा तां प्रत्यप्रकाशरूपत्वात्तस्यां ब्रह्मविद्यालक्षणायां सर्वभूतनिशायां जागर्ति अज्ञाननिद्रायाः प्रबुद्धः सन्सावधानो वर्तते। संयमी इन्द्रियसंयमवान् स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः। यस्यां तु द्वैतदर्शनलक्षणायामविद्यानिद्रायां प्रसुप्तान्येव भूतानि जाग्रति स्वप्नवद्व्यवहरन्ति सा निशा न प्रकाशत आत्मतत्त्वं पश्यतोऽपरोक्षतया मुनेः स्थितप्रज्ञस्य। यावद्धि न प्रबुध्यते तावदेव स्वप्नदर्शनं बोधपर्यन्तत्वाद्भ्रमस्य। तत्त्वज्ञानकाले तु न भ्रमनिमित्तः कश्चिद्व्यवहारः। तदुक्तं वार्तिककारैःकारकव्यवहारे हि शुद्धं वस्तु न वीक्ष्यते। शुद्धे वस्तुनि सिद्धे च कारकव्यापृतिस्तथा।।काकोलूकनिशेवायं संसारो ज्ञात्मवेदिनोः। या निशा सर्वभूतानामित्यवोचत्स्वयं हरिः।। इति। तथाच यस्य विपरीतदर्शनं तस्य न वस्तुदर्शनं विपरीतदर्शनस्य वस्त्वदर्शनजन्यत्वात् यस्य च वस्तुदर्शनं तस्य न विपरीतदर्शनं विपरीतदर्शनकारणस्य वस्त्वदर्शनस्य वस्तुदर्शनेन बाधितत्वात्। तथाच श्रुतिःयत्र वा अन्यदिव स्यात् तत्रान्योऽन्यत्पश्येत्। यत्रत्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत्।। इति विद्याविद्ययोर्व्यवस्थामाह। यथा काकस्य रात्र्यन्धस्य दिनमुलूकस्य दिवान्धस्य निशा रात्रौ पश्यतश्चोलूकस्य यद्दिनं रात्रिरेव सा काकस्येति महदाश्चर्यमेतत्। अतस्तत्त्वदर्शिनः कथमाविद्यकक्रियाकारकादिव्यवहारः स्यादिति स्वतःसिद्ध एव तस्येन्द्रियसंयम इत्यर्थः।
।।2.69।।नन्वेतादृशेन्द्रियनिग्रहकृत् किल्लँक्षणः इत्यपेक्षायामाह या निशेति। सर्वभूतानां या निशा रात्रौ निद्रायामिव विषयसुखेषु सर्वेषां या निशा सुखावाप्तिः। नितरां शं सुखं यस्यामिति निशा। तस्यां संयमी इन्द्रियनिग्रहकर्त्ता जागर्ति न सुखमवाप्नोतीत्यर्थः। यस्यां निशाया भूतानि जाग्रति न सुखं प्राप्नुवन्ति सा भगवत्सुखं पश्यतो मननशीलस्य निशा सुखाप्तिः। तत्सुखस्य कथनायोग्यत्वान्मुनेरिति विशेषणमुक्तम्।
।।2.69।। या निशा रात्रिः सर्वपदार्थानामविवेककरी तमःस्वभावत्वात् सर्वभूतानां सर्वेषां भूतानाम्। किं तत् परमार्थतत्त्वं स्थितप्रज्ञस्य विषयः। यथा नक्तञ्चराणाम् अहरेव सदन्येषां निशा भवति तद्वत् नक्तञ्चरस्थानीयानामज्ञानां सर्वभूतानां निशेव निशा परमार्थतत्त्वम् अगोचरत्वादतद्बुद्धीनाम्। तस्यां परमार्थतत्त्वलक्षणायामज्ञाननिद्रायाः प्रबुद्धो जागर्ति संयमी संयमवान् जितेन्द्रियो योगीत्यर्थः। यस्यां ग्राह्यग्राहकभेदलक्षणायामविद्यानिशायां प्रसुप्तान्येव भूतानि जाग्रति इति उच्यन्ते यस्यां निशायां प्रसुप्ता इव स्वप्नदृशः सा निशा अविद्यारूपत्वात् परमार्थतत्त्वं पश्यतो मुनेः।।अतः कर्माणि अविद्यावस्थायामेव चोद्यन्ते न विद्यावस्थायाम्। विद्यायां हि सत्याम् उदिते सवितरि शार्वरमिव तमः प्रणाशमुपगच्छति अविद्या। प्राक् विद्योत्पत्तेः अविद्या प्रमाणबुद्ध्या गृह्यमाणा क्रियाकारकफलभेदरूपा सतीसर्वकर्महेतुत्वं प्रतिपद्यते। न अप्रमाणबुद्ध्या गृह्यमाणायाः कर्महेतुत्वोपपत्तिः प्रमाणभूतेन वेदेन मम चोदितं कर्तव्यं कर्म इति हि कर्मणि कर्ता प्रवर्तते न अविद्यामात्रमिदं सर्वं निशेव इति। यस्य पुनः निशेव अविद्यामात्रमिदं सर्वं भेदजातम् इति ज्ञानं तस्य आत्मज्ञस्य सर्वकर्मसंन्यासे एव अधिकारो न प्रवृत्तौ। तथा च दर्शयिष्यति तद्बुद्धयस्तदात्मानः इत्यादिना ज्ञाननिष्ठायामेव तस्य अधिकारम्।।तत्रापि प्रवर्तकप्रमाणाभावे प्रवृत्त्यनुपपत्तिः इति चेत् न स्वात्मविषयत्वादात्मविज्ञानस्य। न हि आत्मनः स्वात्मनि प्रवर्तकप्रमाणापेक्षता आत्मत्वादेव। तदन्तत्वाच्च सर्वप्रमाणानां प्रमाणत्वस्य। न हि आत्मस्वरूपाधिगमे सति पुनः प्रमाणप्रमेयव्यवहारः संभवति। प्रमातृत्वं हि आत्मनः निवर्तयति अन्त्यं प्रमाणम् निवर्तयदेव च अप्रमाणीभवति स्वप्नकालप्रमाणमिव प्रबोधे। लोके च वस्त्वधिगमे प्रवृत्तिहेतुत्वादर्शनात् प्रमाणस्य। तस्मात् न आत्मविदः कर्मण्यधिकार इति सिद्धम्।।विदुषः त्यक्तैषणस्य स्थितप्रज्ञस्य यतेरेव मोक्षप्राप्तिः न तु असंन्यासिनः कामकामिनः इत्येतमर्थं दृष्टान्तेन प्रतिपादयिष्यन् आह
।।2.69।।तस्यैवान्येभ्यो वैलक्षण्येन लक्षणमाह या निशेति। याऽऽत्मविषया बुद्धिः संसारिणां स्वपतामिव निशेवाऽप्रकाशिका अज्ञानतिमिरोपहतमतीनां आत्मदर्शनव्यवहारायोग्या तस्यां संयमी जागर्ति। यस्यां च शब्दादिविषयिण्याम्। एवं विलक्षणलक्षणो मुनिर्दर्शितः।
Chapter 2, Verse 69