रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2.64।।
rāga-dveṣha-viyuktais tu viṣhayān indriyaiśh charan ātma-vaśhyair-vidheyātmā prasādam adhigachchhati
rāga—attachment; dveṣha—aversion; viyuktaiḥ—free; tu—but; viṣhayān—objects of the senses; indriyaiḥ—by the senses; charan—while using; ātma-vaśhyaiḥ—controlling one’s mind; vidheya-ātmā—one who controls the mind; prasādam—the Grace of God; adhigachchhati—attains
But he who goes through the sense-objects with the senses free from love and hate, disciplined and controlled, attains serenity.
But by perceiving objects with the organs that are free from attraction and repulsion, and are under his own control, the self-controlled person attains serenity.
But the self-controlled man, moving among objects with the senses restrained and free from attraction and repulsion, attains peace.
On the contrary, one who moves about and consumes the sense-objects through their sense-organs, freed from desire and hatred and controlled in the Self—such a one, with a disciplined mind, attains serenity of disposition.
But the self-controlled soul, who moves among sense objects, free from attachment or repulsion, wins eternal peace.
।।2.64 -- 2.65।। वशीभूत अन्तःकरणवाला कर्मयोगी साधक रागद्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ अन्तःकरणकी निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। निर्मलता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है।
।।2.64।। आत्मसंयमी (विधेयात्मा) पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई (आत्मवश्यै) इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता (प्रस्ेााद) प्राप्त करता है।।
2.64 रागद्वेषवियुक्तैः free from attraction and repulsion? तु but? विषयान् objects? इन्द्रियैः with senses? चरन् moving (amongst)? आत्मवश्यैः selfrestrained? विधेयात्मा the selfcontrolled? प्रसादम् to peace? अधिगच्छति attains.Commentary The mind and the senses are naturally endowed with the two currents of attraction and repulsion. Therefore? the mind and the senses like certain objects and dislike certain other objects. But the disciplined man moves among senseobjects with the mind and the senses free from attraction and repulsion and mastered by the Self? attains to the peace of the Eternal. The senses and the mind obey his will? as the disciplined self has a very strong will. The disciplined self takes only those objects which are ite necessary for the maintenance of the body without any love or hatred. He never takes those objects which are forbidden by the scriptures.In this verse Lord Krishna gives the answer to Arjunas fourth estion? How does a sage of steady wisdom move about (Cf.III.7.19?25XVIII.9).
2.64।। व्याख्या-- 'तु'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि आसक्ति रहते हुए विषयोंका चिन्तन करनेमात्रसे पतन हो जाता है और यहाँ कहते हैं कि आसक्ति न रहनेपर विषयोंका सेवन करनेसे उत्थान हो जाता है। वहाँ तो बुद्धिका नाश बताया और यहाँ बुद्धिका परमात्मामें स्थित होना बताया। इस प्रकार पहले कहे गये विषयससे यहाँके विषयका अन्तर बतानेके लिये यहाँ 'तु' पद आया है। 'विधेयात्मा'-- साधकका अन्तःकरण अपने वशमें रहना चाहिये। अन्तःकरणको वशीभूत किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत कर्म करते हुए विषयोंमें राग होनेकी और पतन होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो अन्तःकरणको अपने वशमें रखना हरेक साधकके लिये आवश्यक है। कर्मयोगीके लिये तो इसकी विशेष आवश्यकता है। 'आत्मवश्यैः रागद्वेषवियुक्तैः इन्द्रियैः'-- जैसे 'विधेयात्मा' पद अन्तःकरणको वशमें करनेके अर्थमें आया है, ऐसे ही 'आत्मवश्यैः' पद इन्द्रियोंको वशमें करनेके अर्थमें आया है। तात्पर्य है कि व्यवहार करते समय इन्द्रियाँ अपने वशीभूत होनी चाहिये और इन्द्रियाँ वशीभूत होनेके लिये इन्द्रियोंका राग-द्वेष रहित होना जरूरी है। अतः इन्द्रियोंसे किसी विषयका ग्रहण रागपूर्वक न हो और किसी विषयका त्याग द्वेषपूर्वक न हो। कारण कि विषयोंके ग्रहण और त्यागका इतना महत्त्व नहीं है, जितना महत्त्व इन्द्रियोंमें राग और द्वेष न होने देनेका है। इसीलिये तीसरे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने साधकके लिये सावधानी बतायी है कि 'प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष रहते हैं। साधक इनके वशीभूत न हो; क्योंकि ये दोनों ही साधकके शत्रु हैं।' पाँचवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि 'जो साधक राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाता है, वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है।' 'विषयान् चरन्'-- जिसका अन्तःकरण अपने वशमें है और जिसकी इन्द्रियाँ राग-द्वेषसे रहित तथा अपने वशमें की हुई है, ऐसा साधक इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन अर्थात् सब प्रकारका व्यवहार तो करता है, पर विषयोंका भोग नहीं करता। भोगबुद्धिसे किया हुआ विषय-सेवन ही पतनका कारण होता है। इस भोगबुद्धिका निषेध करनेके लिये ही यहाँ 'विधेयात्मा','आत्मवश्यैः' आदि पद आये हैं। 'प्रसादमधिगच्छति'-- राग-द्वेषरहित होकर विषयों-का सेवन करनेसे साधक अन्तःकरणकी प्रसन्नता-(स्वच्छता-) को प्राप्त होता है। यह प्रसन्नता मानसिक तप है (गीता 17। 16), जो शारीरिक और वाचिक तपसे ऊँचा है। अतः साधकको न तो रागपूर्वक विषयोंका सेवन करना चाहिये और न द्वेषपूर्वक विषयोंका त्याग करना चाहिये; क्योंकि राग और द्वेष--इन दोनोंसे ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है। राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन करनेसे जो प्रसन्नता होती है, उसका अगर सङ्ग न किया जाय, भोग न किया जाय, तो वह प्रसन्नता परमात्माकी प्राप्ति करा देती है। 'प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते'-- चित्तकी प्रसन्नता (स्वच्छता) प्राप्त होनेपर सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है अर्थात् कोई भी दुःख नहीं रहता। कारण कि राग होनेसे ही चित्तमें खिन्नता होती है। खिन्नता होते ही कामना पैदा हो जाती है और कामनासे ही सब दुःख पैदा होते हैं। परन्तु जब राग मिट जाता है, तब चित्तमें प्रसन्नता होती है। उस प्रसन्नतासे सम्पूर्ण दुःख मिट जाते हैं। जितने भी दुःख हैं, वे सब-के-सब प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर-संसारके सम्बन्धसे ही होते हैं और शरीर-संसारसे सम्बन्ध होता है सुखकी लिप्सासे। सुखकी लिप्सा होती है खिन्नतासे। परन्तु जब प्रसन्नता होती है, तब खिन्नता मिट जाती है। खिन्नता मिटनेपर सुखकी लिप्सा नहीं रहती। सुखकी लिप्सा न रहनेसे शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध नहीं रहता और सम्बन्ध न रहनेसे सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है--'सर्वदुःखानां हानिः।' तात्पर्य है कि प्रसन्नतासे दो बातें होती हैं--संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्मामें बुद्धिकी स्थिरता। यही बात भगवान्ने पहले तिरपनवें श्लोकमें निश्चला और अचला पदोंसे कही है कि उसकी बुद्धि संसारमें निश्चल और परमात्मामें अचल हो जाती है। यहाँ 'सर्वदुःखानां हानिः' का तात्पर्य यह नहीं है कि उसके सामने दुःखदायी परिस्थिति आयेगी ही नहीं, प्रत्युत इसका तात्पर्य यह है कि कर्मोंके अनुसार उसके सामने दुःखदायी घटना, परिस्थिति आ सकती है; परन्तु उसके अन्तःकरणमें दुःख, सन्ताप, हलचल आदि विकृति नहीं हो सकती। 'प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते'-- प्रसन्न (स्वच्छ) चित्तवालेकी बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मानें स्थिर हो जाती है अर्थात् साधक स्वयं परमात्मामें स्थिर हो जाता है, उसकी बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। मार्मिक बात
।।2.64।। जो पुरुष आत्मसंयम से युक्त होकर जीवन में अनेक विषयों को ग्रहण करता है परन्तु न किसी से राग रखता है और न द्वेष वह शांति और प्रसन्नता ही प्राप्त करता है। विषयों से दूर भागने से किसी को शांति नहीं मिलती क्योंकि अन्तकरण की अशान्ति बाह्य विषयों के होने या न होने पर निर्भर नहीं करती उसका प्रमुख कारण प्रिय वस्तु को पाने की लालसा अथवा अप्रिय को त्यागने की इच्छा है।किन्तु पूर्ण आत्मनियन्त्रक ज्ञानी पुरुष अशान्ति के इन कारणों से सर्वथा मुक्त हुआ विचरण करता है। जैसे हम जहाँ कहीं भी जायें प्रकाश की स्थिति के अनुसार हमारी छाया हमारे आसपास बनी रहती है परन्तु वह छाया स्वयं किसी प्रकार हमें न राग के द्वारा बाँध सकती है और न द्वेष के कारण नष्ट ही कर सकती है बाह्य विषय जगत् केवल उस व्यक्ति को कष्ट पहुँचाता है जो स्वयं उन विषयों को ऐसी शक्ति प्रदान करता है कि वे उसको ही चूरचूर कर देंयदि कोई पागल व्यक्ति हाथ में चाबुक लेकर अपने ही शरीर पर मारता हुआ पीड़ा से रोये तो उसके दुखों का अन्त तभी होगा जब वह चाबुक को छोड़ देगा अथवा यदि चाबुक को हाथ में रखे तब भी उसे अपने शरीर पर ही न घुमाये इसी प्रकार मन ही विषयों में सुन्दरता आदि का आरोप कर उनको पाने के लिये परिश्रम करता है और स्वयं ही दुखी होता है। उपदेश की दृष्टि से यहाँ कहा गया है कि आत्मसंयमी पुरुष राग और द्वेष न रखकर विषयों को अपनी ओर से शक्ति नहीं देता कि वे उसे ही पीड़ित करें।आत्मसंयम तथा रागद्वेष का अभाव इन दो गुणों के होने पर विषयों के आकर्षण से उत्पन्न होने वाले मन के विक्षेप स्वत कम होने लगते हैं। मन की विक्षेपरहित स्थिति को ही शान्ति अथवा प्रसाद कहते हैं।पूजन विधि के अन्त में प्रसाद वितरण की क्रिया इस सिद्धान्त की ही द्योतक है। पूजन अथवा यज्ञ करते समय मनुष्य को संयमित रहकर ईश्वर का ध्यान करना चाहिये जिसके फलस्वरूप वह मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव करता है। वास्तव में इसको ही ईश्वर प्रसाद कहा जाता है। वेदान्ती चित्तशुद्धि को प्रसाद समझते हैं। रागद्वेष के अभाव में विक्षेपों का अभाव स्वाभाविक है और यही है चित्तशुद्धि।प्रसाद को प्राप्त करने पर क्या होगा सुनो
।।2.64।।विषयाणां स्मरणमपि चेदनर्थकारणं सुतरां तर्हि भोगस्तेन जीवनार्थं भुञ्जानो विषयाननर्थं कथं न प्रतिपद्यत इत्याशङ्क्य वृत्तानुवादपूर्वकमुत्तरश्लोकतात्पर्यमाह सर्वानर्थस्येति। अनर्थमूलकथनानन्तर्यमथशब्दार्थः। परिहर्तव्ये निर्णीते तत्परिहारोपायजिज्ञासां दर्शयति इदानीमिति। रागद्वेषपूर्विका प्रवृत्तिरित्यत्रानुभवदर्शनार्थो हिशब्दः। शास्त्रीयप्रवृत्तिव्यासेधार्थं स्वाभाविकीत्युक्तं तत्रेत्यधिकृतानधिकृत्य प्रयोगः। अवर्जनीयानशनपानादीन् देहस्थितिहेतूनिति यावत्। इन्द्रियाणां विषयेषु प्रवृत्तिश्चेन्नियमानुपपत्त्या वर्जनीयेष्वपि सा स्यादित्याशङ्क्याह आत्मेति। अन्तःकरणाधीनत्वेऽपीन्द्रियाणां तदनियमात्तेषामपि नियमानुपपत्तिरित्याशङ्क्याह विधेयात्मेति।
।।2.64।।एवं विषयचिन्तनस्यानर्थोपायत्वमुक्त्वा अथेदानीं विषयध्यानरहितस्य स्वाधीनस्य चेतसः परमपुरुषार्थोपायत्वं वदन्किं व्रजेतेत्यस्योत्तरमाह रागेति। विधेयात्मा स्वाधीनचित्तोऽत एवात्मवश्यैः स्वाधीनैरतएव रागद्वेषाभ्यां स्वाभाविकेन्द्रिय प्रवृत्तिहेतुरुपाभ्यां वियुक्तैरिन्द्रियैः विषयान्जीवनहेतून्भोजनाच्छादनादींश्चरन्नुपलभमानः प्रसन्नतां स्वास्थ्यं प्राप्नोति।
।।2.64।।इन्द्रियजयफलमाहोत्तराभ्यां श्लोकाभ्याम् विषयाननुभवन्नपि विधेय आत्मा यस्य सः जितात्मेत्यर्थः। प्रसादं मनःप्रसादम्।
।।2.64।।ननु विषयानध्यायतोऽपि योगिनो व्युत्थाने प्रमाणस्वाभाव्यादिन्द्रियाणां विषयेषु सङ्गो दुष्परिहरस्ततश्चोक्तरीत्या तस्यापि नाशप्रसक्तिरित्याशङ्क्याह रागद्वेषेति। विधेयात्मा किंकरीकृतमनास्तु आत्मवश्यैर्मनोधीनैरिन्द्रियैः स्वामिनश्चित्तस्य किंकरीकृतस्य कामक्रोधहीनत्वात्स्वयमपि रागद्वेषवियुक्तैः विषयान्पथि पतिततृणादीनीवानास्थया चरन्पश्यन्नपि पुमान् तत्र कामाद्यनुदयात्प्रसादं संकल्पविकल्पपङ्कलेपप्रक्षालनेन मनसः स्वाच्छ्यमधिगच्छति। मनसः स्वाच्छ्यमेव प्रत्यगात्मनः स्वाच्छ्यं तस्य तद्गुणसारत्वात्। अजितमनस्कमिव जितमनस्कं विषयसङ्गो न बाधतेऽतो मनोजयोऽवश्यं कर्तव्य इत्यर्थः।
।।2.64।।उक्तेन प्रकारेण मयि सर्वेश्वरे चेतसः शुभाश्रयभूते न्यस्तमना निर्दग्धाशेषकल्मषतया रागद्वेषवियुक्तैः आत्मवश्यैः इन्द्रियैः विषयान् चरन् विषयान् तिरस्कृत्य वर्तमानो विधेयात्मा विधेयमनाः प्रसादम् अधिगच्छति। निर्मलान्तःकरणो भवति इत्यर्थः।
।।2.64।।नन्विन्द्रियाणां विषयप्रवणस्वभावानां विरोद्धुमशक्यत्वादयं दोषो दुष्परिहर इति स्थितप्रज्ञत्वं कथं स्यादित्याशङ्क्याह रागेति द्वाभ्याम्। रागद्वेषरहितैर्विगतदर्पैरिन्द्रियैर्विषयांश्चरन्भुञ्जानोऽपि प्रसादं शान्तिं प्राप्नोति। रागद्वेषराहित्यमेवाह आत्मनो मनसो वश्यैर्विधेयो वशवर्ती आत्मा मनो यस्येति। अनेनैव कथं व्रजेत भुञ्जीतेत्यस्य चतुर्थप्रश्नस्य स्वाधीनैरिन्द्रियैर्विषयानधिगच्छतीत्युत्तरमुक्तं भवति।
।।2.64 2.65।।ध्यायत इति। क्रोधादिति। तपस्विनो विषयत्याग एव विषयग्रहणे पर्यवस्यति। ध्यात्वा हि ते त्यजन्ते। ध्यानकाले एव च (S omits च) संगादयः उपजायन्ते इति अनपायो (K अनुपायो) विषयत्यागः स्थिरप्रज्ञस्य एव ।
।।2.64।।रागद्वेषेति श्लोकद्वयस्य तात्पर्यमाह इन्द्रिये ति। इन्द्रियजयश्च तत्फलं चेन्द्रियजयफलं इन्द्रियजयस्य फलमिन्द्रियजयफलम्। अस्त्वेवं रागद्वेषपरिहारः ततः किं इत्याकाङ्क्षायां रागद्वेषपरिहारस्येन्द्रियजयाख्यं फलमाह इन्द्रियजयेन किं भवतिवशे हि यस्येन्द्रियाणि 2।61 इति ज्ञानं भवती त्युक्तमिति चेत् सत्यम् तत्किं साक्षादिन्द्रियजयफलं उत व्यवहितं इत्याकाङ्क्षायां इन्द्रियजयस्य फलं ज्ञानं यथा भवति तथाऽऽहेत्यर्थः। रागद्वेषपरिहारवद्विषयाचरणस्यापि इन्द्रियजयसाधनत्वमुच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह विषयानि ति। निराहारत्वमिन्द्रियजये कारणं तच्चाशक्यमतः कथमिन्द्रियजयः इत्याशङ्क्य देहधारणामात्रोपयुक्तविषयानुभवो न दोषायेति तदभ्युपगममात्रमनेन क्रियत इति भावः। इन्द्रियजयवाचकं पदमत्र न श्रूयत इति अतस्तद्व्याचष्टे। विधेय इति। स विधेयात्मेति शेषः। किमनेनापि इत्यत आह जितात्मे ति। अनेन पादत्रयेण रागद्वेषपरिहारस्येन्द्रियजयाख्यं फलमुक्तम्। यद्यप्यनुवादोऽयं प्रतीयते तथाप्यप्राप्तत्वादन्यथा वाक्यवृत्तिः। तथाहि य उक्तविधया त्यक्तरागद्वेषः स रागद्वेषवियुक्तैस्ताभ्यामप्रयुक्तैः केवलशरीरधारणार्थं विषयांश्चरति स विधेयात्मा भवति तत एव बाह्येन्द्रियाण्यपि तस्य वश्यानि भवन्तीति। अत एव क्रमेण वाक्यद्वयस्य पृथक् तात्पर्यं नोक्तम्। द्वितीयाकाङ्क्षोत्तरत्वेनेन्द्रियजयस्य ज्ञानं व्यवहितफलमिति दर्शयितुं साक्षात्फलमुक्तम्। विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छतीति। तत्र प्रसादो नामात्मधर्म इति प्रतीयते तन्निवृत्त्यर्थमाह प्रसाद मिति। प्रसन्नचेतस इति वक्ष्यमाणत्वादिति भावः।
।।2.64।।मनसि निगृहीते तु बाह्येन्द्रियनिग्रहाभावेऽपि न दोष इति वदन् किं व्रजेतेत्यस्योत्तरमाहाष्टभिः योऽसमाहितचेताः स बाह्येन्द्रियाणि निगृह्यापि रागद्वेषदुष्टेन मनसा विषयांश्चिन्तयन्पुरुषार्थाद्भ्रष्टो भवति। विधेयात्मा तु। तुशब्दः पूर्वस्माद्व्यतिरेकार्थः। वशीकृतान्तःकरणस्तु आत्मवश्यैर्मनोधीनैः स्वाधीनैरिति वा रागद्वेषाभ्यां वियुक्तैर्विरहितैरिन्द्रियैः श्रोत्रादिभिर्विषयाञ्शब्दादीननिषिद्धांश्चरन्नुपलभमानः प्रसादं प्रसन्नतां चित्तस्य स्वच्छतां परमात्मसाक्षात्कारयोग्यतामधिगच्छति। रागद्वेषप्रयुक्तानीन्द्रियाणि दोषहेतुतां प्रतिपद्यन्ते। मनसि स्ववशे तु न रागद्वेषौ। तयोरभावे च न तदधीनेन्द्रियप्रवृत्तिः। अवर्जनीयतया तु विषयोपलम्भो न दोषमावहंतीति न शुद्धिव्याघात इति भावः। एतेन विषयाणां स्मरणमपि चेदनर्थकारणं सुतरां तर्हि भोगस्तेन जीवनार्थं विषयान्भुञ्जानः कथमनर्थं न प्रतिपद्येतेति शङ्का निरस्ता। स्वाधीनैरिन्द्रियैर्विषयान्प्राप्नोतीति च किं व्रजेतेति प्रश्नस्योत्तरमुक्तं भवति।
।।2.64।।समाधिस्थस्योत्तरमाह रागद्वेषवियुक्तैरिति। तुशब्दः पूर्वनिरूपणं व्यावर्त्तयति। विधेयात्मा विधेयो वशवर्त्ती आत्मा भगवान् यस्य तादृशो रागद्वेषादियुक्तैरात्मवश्यैः स्ववशैर्भगवद्वश्यैवां इन्द्रियैः विषयान् भोगान् भगवदिच्छया प्राप्तान् उपयोगं कुर्वन् प्रसादं भगवत्प्रसादमधिगच्छति। अत्रायं भावः भगवदिच्छया रसज्ञानार्थं स्वस्वरूपरसदानेच्छया प्राप्तान् भोगान् आत्मवश्यैर्भगवद्रसाभिलाषिभिस्तद्रसदानार्थे तद्दत्तान् ज्ञात्वा यावत् कार्यसिद्धिं भुञ्जतो भगवान् प्रसादं करोति। अत एव श्रीभागवते 11।14।18बाध्यमानोऽपि इत्यारभ्यविषयैर्नाभिभूयते इत्यन्तेन तथैवोक्तम्।
।।2.64।। रागद्वेषवियुक्तैः रागश्च द्वेषश्च रागद्वेषौ तत्पुरःसरा हि इन्द्रियाणां प्रवृत्तिः स्वाभाविकी तत्र यो मुमुक्षुः भवति सः ताभ्यां वियुक्तैः श्रोत्रादिभिः इन्द्रियैः विषयान् अवर्जनीयान् चरन् उपलभमानः आत्मवश्यैः आत्मनः वश्यानि वशीभूतानि इन्द्रियाणि तैः आत्मवश्यैः विधेयात्मा इच्छातः विधेयः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः अयं प्रसादम् अधिगच्छति । प्रसादः प्रसन्नता स्वास्थ्यम्।।प्रसादे सति किं स्यात् इत्युच्यते
।।2.64 2.65।।नन्विन्द्रियाणां विषयाभिमुखस्वभावानां निरोधस्याशक्यत्वाद्दोषो दुष्परिहर इति कथं प्रज्ञायाः प्रतिष्ठितत्वं इत्याशङ्क्याह द्वाभ्याम् रागेति। यो वश्यात्मा स्वेन्द्रियै रागद्वेषवियुक्तैर्विषयानुपभुञ्जानोऽपि प्रसादं प्रशान्तिमधिगच्छति तस्य प्रसन्नचेतसः प्रज्ञा प्रतिष्ठिताऽवसेया।
Chapter 2, Verse 64