क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।
krodhād bhavati sammohaḥ sammohāt smṛiti-vibhramaḥ smṛiti-bhranśhād buddhi-nāśho buddhi-nāśhāt praṇaśhyati
krodhāt—from anger; bhavati—comes; sammohaḥ—clouding of judgement; sammohāt—from clouding of judgement; smṛiti—memory; vibhramaḥ—bewilderment; smṛiti-bhranśhāt—from bewilderment of memory; buddhi-nāśhaḥ—destruction of intellect; buddhi-nāśhāt—from destruction of intellect; praṇaśhyati—one is ruined
Anger leads to delusion, which causes the loss of memory; the loss of memory leads to the destruction of discrimination, and with the destruction of discrimination, one is lost.
From anger follows delusion; from delusion, a failure of memory; from the failure of memory, the loss of understanding; and from the loss of understanding, one perishes.
Anger leads to delusion, which causes loss of memory; this, in turn, leads to the destruction of discrimination, resulting in destruction.
From wrath comes delusion; from delusion, the loss of memory; from the loss of memory, the loss of capacity to decide; due to the loss of capacity to decide, he perishes outright.
Anger induces delusion; delusion leads to loss of memory; loss of memory results in the shattering of reason; and the destruction of reason leads to destruction.
।।2.62 -- 2.63।। विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
।।2.63।। क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है।।
2.63 क्रोधात् from anger? भवति comes? संमोहः delusion? संमोहात् from delusion? स्मृतिविभ्रमः loss of memory? स्मृतिभ्रंशात् from loss of memory? बुद्धिनाशः the destruction of discriminatio? बुद्धिनाशात् from the,destruction of discrimination? प्रणश्यति (he) perishes.Commentary From anger arises delusion. When a man becomes angry he loses his power of discrimination between right and wrong. He will speak and do anything he likes. He will be swept away by the impulse of passion and emotion and will act irrationally.
2.63।। व्याख्या-- 'ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते'-- भगवान्के परायण न होनेसे, भगवान्का चिन्तन न होनेसे विषयोंका ही चिन्तन होता है। कारण कि जीवके एक तरफ परमात्मा है और एक तरफ संसार है। जब वह परमात्माका आश्रय छोड़ देता है, तब वह संसारका आश्रय लेकर संसारका ही चिन्तन करता है; क्योंकि संसारके सिवाय चिन्तनका कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं। इस तरह चिन्तन करते-करते मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति, राग, प्रियता पैदा हो जाती है। आसक्ति पैदा होनेसे मनुष्य उन विषयोंका सेवन करता है। विषयोंका सेवन चाहे मानसिक हो चाहे शारीरिक हो, उससे जो सुख होता है, उससे विषयोंमें प्रियता पैदा होती है। प्रियतासे उस विषयका बार-बार चिन्तन होने लगता है। अब उस विषयका सेवन क,रे चाहे न करे, पर विषयोंमें राग पैदा हो ही जाता है--यह नियम है। 'सङ्गात्संजायते कामः'-- विषयोंमें राग पैदा होनेपर उन विषयोंको (भोगोंको) प्राप्त करनेकी कामना पैदा हो जाती है कि वे भोग, वस्तुएँ मेरेको मिलें। 'कामात्क्रोधोऽभिजायते'-- कामनाके अनुकूल पदार्थोंके मिलते रहनेसे 'लोभ' पैदा हो जाता है और कामनापूर्तिकी सम्भावना हो रही है, पर उसमें कोई बाधा देता है, तो उसपर 'क्रोध' आ जाता है। कामना एक ऐसी चीज है, जिसमें बाधा पड़नेपर क्रोध पैदा हो ही जाता है। वर्ण, आश्रम, गुण, योग्यता आदिको लेकर अपनेमें जो अच्छाईका अभिमान रहता है, उस अभिमानमें भी अपने आदर, सम्मान आदिकी कामना रहती है; उस कामनामें किसी व्यक्तिके द्वारा बाधा पड़नेपर भी क्रोध पैदा हो जाता है। 'कामना' रजोगुणी वृत्ति है, 'सम्मोह' तमोगुणी वृत्ति है और 'क्रोध' रजोगुण तथा तमोगुणके बीचकी वृत्ति है। कहीं भी किसी भी बातको लेकर क्रोध आता है तो उसके मूलमें कहीं-न-कहीं राग अवश्य होता है। जैसे, नीति-न्यायसे विरुद्ध काम करनेवालेको देखकर क्रोध आता है, तो नीति-न्यायमें राग है। अपमान-तिरस्कार करनेवालेपर क्रोध आता है, तो मान-सत्कारमें राग है। निन्दा करनेवालेपर क्रोध आता है, तो प्रशंसामें राग है। दोषारोपण करनेवालेपर क्रोध आता है, तो निर्दोषताके अभिमानमें राग है; आदिआदि। 'क्रोधाद्भवति सम्मोहः'-- क्रोधसे सम्मोह होता है अर्थात् मूढ़ता छा जाती है। वास्तवमें देखा जाय तो काम क्रोध लोभ और ममता इन चारोंसे ही सम्मोह होता है जैसे (1) कामसे जो सम्मोह होता है, उसमें विवेकशक्ति ढक जानेसे मनुष्य कामके वशीभूत होकर न करनेलायक कार्य भी कर बैठता है। (2) क्रोधसे जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्य अपने मित्रों तथा पूज्यजनोंको भी उलटी-सीधी बातें कह बैठता है और न करनेलायक बर्ताव भी कर बैठता है। (3) लोभसे जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्यको सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदिका विचार नहीं रहता, और वह कपट करके लोगोंको ठग लेता है। (4) ममतासे जो सम्मोह होता है, उसमें समभाव नहीं रहता, प्रत्युत पक्षपात पैदा हो जाता है।
।।2.63।। इस श्लोक के आगे पाँच सुन्दर श्लोकों में श्रीकृष्ण हिन्दू मनोविज्ञान के अनुसार देवत्व की स्थिति से मनुष्य के पतन का कारण बताते हैं। इसका एक मात्र प्रयोजन है महाबाहु अर्जुन को सभी ओर से इन्द्रियों को वश में रखने के महत्व को समझाना। इन्द्रियों पर स्वामित्व रखने वाला पुरष ही हिन्दू शास्त्रों के अनुसार स्थितप्रज्ञ कहलाता है।यह प्रकरण उन समस्त साधकों के आत्मचरित्र की रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है जो दीर्घ काल तक साधनारत रहने के उपरान्त भी असफलता एवं निराशा की चट्टानों से टकराकर चूरचूर हो जाते हैं। वेदान्त के सच्चे साधक का पतन असम्भव है। असफल साधकों के उदाहरण कम नहीं हैं और उन सभी की असफलता का एक मात्र कारण विषयों के शिकार होना ही है। यह भी देखा गया है कि एक बार पतन होने पर वे फिर सम्हल नहीं पाते उनके लिये पतन का अर्थ है सम्पूर्ण नाश पतन की सीढ़ी का यह बहुत सुन्दर वर्णन है। स्वयं के नाश की सीढ़ी का वर्णन इतना विस्तारपूर्वक इसलिये किया गया है कि हमारे जैसे साधक यह समझ सकें कि पुन अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है।जैसे छोटे से बीज से बड़े वृक्ष की उत्पत्ति होती है वैसे ही हमारे नाश का बीज है असद् विचार और मिथ्या कल्पनायेंे। विचार में रचना शक्ति है यह हमारा निर्माण अथवा नाश कर सकती है। निर्माण और विनाश उस शक्ति के सदुपयोग और दुरुपयोग पर निर्भर करते हैं। जब मनुष्य किसी विषय को सुन्दर और सुख का साधन समझकर उसका निरन्तर चिन्तन करता है तब उससे उत्पन्न होती है उस विषय में आसक्ति। इस आसक्ति के और अधिक बढ़ने पर वह उसकी उत्कट इच्छा या कामना का रूप लेती है जिसको पूर्ण किये बिना मनुष्य शान्ति से नहीं बैठ सकता। यदि कामना पूर्ति के मार्ग में कोई विघ्न आता है तो उस विघ्न की ओर होने वाली प्रतिक्रिया को कहते हैं क्रोध।क्रोध का परिणाम यह होता है कि मनुष्य जहाँ जो वस्तु या गुण नहीं है उसे वहाँ देखने लग जाता है जिसे मोह नाम दिया गया है। मोह का अर्थ है अविवेक। मोह ही स्मृति के नाश का कारण है। क्रोध के आवेश में मनुष्य सभी सम्बन्ध भूलकर चाहें जैसा व्यवहार कर सकता है। श्रीशंकराचार्य लिखतें हैं कि क्रोधावेश में मनुष्य अपने पूज्य गुरु एवं मातापिता के ऋण को भूलकर उनका भी तिरस्कार करता है।इस प्रकार असद् विचारों से प्रारम्भ होकर आसक्ति (संग) इच्छा क्रोध मोह और स्मृति के नाश तक जब मनुष्य का पतन हुआ तो अगली सीढ़ी है बुद्धि का नाश। बुद्धि में विवेक की वह सार्मथ्य है जिससे हम अच्छेबुरे धर्मअधर्म का निर्णय कर सकते हैं। निषिद्ध कर्मों को करते समय बुद्धि हमें उससे परावृत्त करने का प्रयत्न भी करती है। यदि यह बुद्धि ही नष्ट हो जाय तो मनुष्य का मनुष्यत्व ही नष्ट हुआ समझना चाहिये। बुद्धिनाश के बाद तो वह पशु से भी हीन व्यवहार करता है और फिर कभी जीवन में श्रेष्ठ और उच्च ध्येय को न समझ सकता है और न प्राप्त कर सकता है। यहाँ मनुष्य के ऩाश से तात्पर्य यह है कि अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान कर वह मनुष्य जीवन के परमपुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करने योग्य नहीं रह जाता।विषयों के चिन्तन को यहाँ सभी अनर्थों का कारण बताया है। अब मोक्ष प्राप्ति का साधन बताते हैं
।।2.63।।क्रोधस्य संमोहहेतुत्वमनुभवेन द्रढयति क्रुद्धो हीति। आक्रोशत्यधिक्षिपति तदयोग्यत्वमपेरर्थः। संमोहकार्यं कथयति संमोहादिति। स्मृतेर्निमित्तनिवेदनद्वारा स्वरूपं निरूपयति शास्त्रेति। क्षणिकत्वादेव तस्याः स्वतो नाशसंभवान्न संमोहाधीनत्वं तस्येत्याशङ्क्याह स्मृतीति। स्मृतिभ्रंशेऽपि कथं बुद्धिनाशः स्वरूपतः सिध्यति तत्राह कार्येति। ननु पुरुषस्य नित्यसिद्धस्य बुद्धिनाशेऽपि प्रणाशो न कल्पते तत्राह तावदेवेति। कार्याकार्यविवेचनयोग्यान्तःकरणाभावे सतोऽपि पुरुषस्य करणाभावादपगततत्त्वविवेकविवक्षया नष्टत्वव्यपदेशः तदेतदाह पुरुषार्थेति।
।।2.62 2.63।।इन्द्रियस्य जयः प्रयत्नेन संपाद्य इत्युक्तं तत्र मनसा विषयाचिन्तनाभ्यास एवोपाय इत्याशयेन व्यतिरेके दोषमाह ध्यायत इति। विषयांश्चिन्तयतः पुरुषस्य तेषु प्रीतिरुपजायते सङ्गादभिलाषः संजायते कामात्कुतश्चित्प्रतिहतात्क्रोधोऽभिजायते क्रोधात्कर्तव्याकर्तव्यविषये विभ्रमो भवति क्रुद्धो हि संमूढो गुरुनप्याक्रोशति तस्मात् स्मृतेः शास्त्राचार्योपदेशाहितसंस्कारजनितायाः विभ्रंशः स्यात् स्मृत्युत्पत्तिनिमित्तप्राप्तावनुत्पत्तिः ततः कार्याकार्यविवेकायोग्यता बुद्धेर्नाशः तस्मात्प्रणश्यति जीवन्नेव मृतः पुरुषार्थायोग्यो भवतीति द्वयोरर्थः। विषयध्यानमेव सर्वानर्थबीजमित्यभिप्रायः।
।।2.62 2.63।।रागादिदोषकारणमाह परिहाराय श्लोकद्वयेन। सम्मोहोऽधर्मेच्छा। तथा हि मोहशब्दार्थ उक्त उपगीतासुमोहसंज्ञितम्। अधर्मलक्षणं च नियतं पापकर्मसु इति। तथाचान्यत्रसम्मोहोऽधर्मकामिता इति। स्मृतिविभ्रमः प्रतिषेधादिस्मृतिनाशः। बुद्धिनाशः सर्वात्मना दोषबुद्धिनाशः। विनश्यति नरकाद्यनर्थं प्राप्नोति। तथा ह्युक्तम् अधर्मकामिनः शास्त्रे विस्मृतिर्जायते यदा। दोषादृष्टेस्तत्कृतेश्च नरकं प्रतिपद्यते।
।।2.63।।ततः क्रोधात्संमोहः कार्याकार्यविवेकाभावो भवति। ततः स्मृतिविभ्रमः शास्त्रार्थानुसंधानस्य विभ्रंशरूपं चलनं भवति। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशः शास्त्रार्थस्य निश्चितस्यापि तिरोधानं भवति। तस्मिंश्च शास्त्रजे परोक्षज्ञानेऽपि नष्टे पुरुषो नश्यति पुरुषार्थायोग्यो भवति। यो हि तादृशः स नष्ट एवेति लोके वदन्ति।
।।2.63।। क्रोधाद् भवति संमोहः। संमोहः कृत्याकृत्यविवेकशून्यता तया सर्वं करोति। ततश्च प्रारब्धे इन्द्रियजयादिके प्रयत्ने स्मृतिभ्रंशो भवति। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशः आत्मज्ञाने यो व्यवसायः कृतः तस्य नाशः स्यात्। बुद्धिनाशाद् पुनरपि संसारे निमग्नो नष्टो भवति।
।।2.63।।किंच क्रोधादिति। क्रोधात्संमोहः कार्याकार्यविवेकाभावः। ततः शास्त्राचार्योपदिष्टार्थस्मृतेर्विभ्रमो विचलनम्। ततो बुद्धेश्चेतनाया विनाशो वृक्षादिष्विवाभिभवः। ततः प्रणश्यति मृततुल्यो भवति।
।।2.63।।तानीति। य एवं मनसा इन्द्रियाणि नियमयति न त्वप्रवृत्त्या स एव स्थिरप्रज्ञः। स च मत्पर आसीत मामेव चिदात्मानं परमेश्वरमभ्यस्येत् ( N अभ्यसेत्)।
।।2.62 2.63।।ध्यायतः इत्यादिना प्रकृतानुपयुक्तं किमेतदुच्यते इत्यत आह रागादी ति। रागादिदोषस्य कारणं रागादिदोषकारणम्। तथा रागादिदोषः कारणं यस्य तद्रागादिदोषकारणम् परिहाराय रागादिदोषस्य। इदमुक्तं भवति मत्परो युक्त आसीत 2।61 इतीन्द्रियजयस्य परमसाधनमुक्तम्। रागद्वेषपरिहारोऽप्यपरं साधनमिति वक्ष्यति। तत्र स एव कथं स्यात् इत्या(शङ्कायां) काङ्क्षायां उपोद्धातप्रक्रिययेदमुच्यत इति। सम्मोहो मूर्छाऽत्र न सङ्गच्छत इत्यतोऽन्यथा व्याचष्टे सम्मोह इति। अधर्मेच्छा अकार्येच्छा। कुतः इत्यत आह तथा ही ति। संशब्दस्तु तस्यैव विशेषक इति भावः। अदृष्टरूपाधर्मविषयम्। तद्धेतुषु पापकर्मसु च नियतं कामनं मोहसंज्ञितमित्यर्थः। स्पष्टं चात्र प्रमाणमाह तथा चे ति। यत्किञ्चिद्विषयस्य स्मृतिविभ्रमस्य प्रकृतानुपयोगात्सम्यग्व्याचष्टे स्मृतिविभ्रम इति। विभ्रमोऽनवस्थानं नाश इति यावत्। चेतनस्य कथं बुद्धिनाशः इत्यत आह बुद्धिनाश इति। स्मृतिविभ्रम एवायमित्यतः सर्वात्मनेत्युक्तम्। नित्य आत्मेत्युक्तम् तत्कथं विनश्यति इत्यत आह विनश्यती ति। उक्तार्थे प्रमाणमाह तथा ही ति। तदा दोषादृष्टेः। एतदुक्तं भवति रागद्वेषयोः परम्परयानरकाद्यनर्थप्राप्तिः कार्यमिति ज्ञानेन तत्परिजिहीर्षायां विषयध्यानपरम्परया तत्कारणमिति ज्ञानेन तदकारणात्तयोरनुत्पादो भवतीति।
।।2.62 2.63।।ननु मनसो बाह्येन्द्रियप्रवृत्तिद्वाराऽनर्थहेतुत्वं निगृहीतबाह्येन्द्रियस्य तूत्खातदंष्ट्रोरगवन्मनस्यनिगृहीतेऽपि न कापि क्षतिर्बाह्योद्योगाभावेनैव कृतकृत्यत्वादतो युक्त आसीतेति व्यर्थमुक्तमित्याशङ्का निगृहीतबाह्येन्द्रियस्यापि युक्तत्वाभावे सर्वानर्थप्राप्तिमाह द्वाभ्याम् निगृहीतबाह्येन्द्रियस्यापि शब्दादीन्विषयान्ध्यायतो मनसा पुनःपुनश्चिन्तयतः पुंसस्तेषु विषयेषु सङ्ग आसङ्गो ममात्यन्तं सुखहेतव एत इत्येवं शोभनाध्यासलक्षणः प्रीतिविशेष उपजायते। सङ्गात्सुखहेतुत्वज्ञानलक्षणात्संजायते कामो ममैते भवन्त्विति तृष्णाविशेषः। तस्मात्कामात्कुतश्चित्प्रतिहन्यमानात्तत्प्रतिघातकविषयः क्रोधोऽभिज्वलनात्माभिजायते। क्रोधाद्भवति संमोहः कार्याकार्यविवेकाभावरूपः। संमोहात्स्मृतिविभ्रमः स्मृतेः शास्त्राचार्योपदिष्टार्थानुसन्धानस्य विभ्रमो विचलनं विभ्रंशः। तस्माच्च स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धेरैकात्म्याकारमनोवृत्तेर्नाशो विपरीतभावनोपचयदोषेण प्रतिबन्धादनुत्पत्तिरनुत्पन्नायाश्च फलायोग्यत्वेन विलयः। बुद्धिनाशात्प्रणश्यति तस्याश्च फलभूताया बुद्धेर्विलोपात्प्रणश्यति सर्वपुरुषार्थायोग्यो भवति। यो हि पुरुषार्था योग्यो जातः स मृत एवेति लोके व्यवह्रियते। अतः प्रणश्यतीत्युक्तम्। यस्मादेवं मनसो निग्रहाभावे निगृहीतबाह्येन्द्रियस्यापि परमानर्थप्राप्तिस्तस्मान्महता प्रयत्नेन मनो निगृह्णीयादित्यभिप्रायः। अतो युक्तमुक्तंतानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत इति।
।।2.63।।क्रोधाच्च सम्मोहः। सम्य कं्৷৷৷৷৷৷৷৷. कारेण मोहो विवेकराहित्यम्। सम्मोहात्स्मृतेर्भगवत्स्मरणस्य विभ्रमः विशेषेण भ्रमः। भगवत्स्मरणानन्तरमनुस्मरणभ्रमे विशेषः। स्मृतिभ्रंशात्पूर्वोक्तबुद्धिनाशः स्यात्। बुद्धिनाशात्प्रणश्यति। पुनस्तत्साधनप्रवृत्तिराहित्यं नाशे प्रकर्षः। विषयध्यानसङ्गरहितो व्रजेति भावः ()।
।।2.63।। क्रोधात् भवति संमोहः अविवेकः कार्याकार्यविषयः। क्रुद्धो हि संमूढः सन् गुरुमप्याक्रोशति। संमोहात् स्मृतिविभ्रमः शास्त्राचार्योपदेशाहितसंस्कारजनितायाः स्मृतेः स्यात् विभ्रमो भ्रंशः स्मृत्युत्पत्तिनिमित्तप्राप्तौ अनुत्पत्तिः। ततः स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशः बुद्धेर्नाशः। कार्याकार्यविषयविवेकायोग्यता अन्तःकरणस्य बुद्धेर्नाश उच्यते। बुद्धिनाशात् प्रणश्यति। तावदेव हि पुरुषः यावदन्तःकरणं तदीयं कार्याकार्यविषयविवेकयोग्यम्। तदयोग्यत्वे नष्ट एव पुरुषो भवति। अतः तस्यान्तःकरणस्य बुद्धेर्नाशात् प्रणश्यति पुरुषार्थायोग्यो भवतीत्यर्थः।।सर्वानर्थस्य मूलमुक्तं विषयाभिध्यानम्। अथ इदानीं मोक्षकारणमिदमुच्यते
।।2.62 2.63।।एवं बाह्येन्द्रियसंयमाभावे दोष उक्तः इदानीं मनोनिरोधाभावे योगबुद्धिभ्रंशदोष इति कथयंस्तस्य स्थिरप्रज्ञतां दर्शयति चतुर्भिः। तत्र मनःसंयमाभावे दोषमाह द्वाभ्याम् ध्यायत इति विषयानिति। विचारयतश्चिन्तयत इति यावत् आसक्तिर्भवति ततः कामाभिलाषः। ततः प्रतिहतादेव क्रोधः। ततो विवेकाभावः। ततश्च शास्त्राचार्योपदिष्टार्थः स्मृतेर्विप्लवः। ततो व्यवसायात्मिकबुद्धेर्नाशः। ततः प्रणश्यति अत्यन्तविस्मृतिं प्राप्तः प्राकृत एव भवति अविशुद्धोऽपि च।
Chapter 2, Verse 63