Chapter 2, Verse 61

Text

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.61।।

Transliteration

tāni sarvāṇi sanyamya yukta āsīta mat-paraḥ vaśhe hi yasyendriyāṇi tasya prajñā pratiṣhṭhitā

Word Meanings

tāni—them; sarvāṇi—all; sanyamya—subduing; yuktaḥ—united; āsīta—seated; mat-paraḥ—toward me (Shree Krishna); vaśhe—control; hi—certainly; yasya—whose; indriyāṇi—senses; tasya—their; prajñā—perfect knowledge pratiṣhṭhitā


Translations

In English by Swami Adidevananda

Having controlled all the senses, let him remain in contemplation, regarding Me as supreme; for his knowledge is firmly established when his senses are under control.

In English by Swami Gambirananda

Controlling all of them, one should remain focused on Me as the supreme. For, the wisdom of one whose senses are under control becomes steadfast.

In English by Swami Sivananda

Having restrained them all, he should sit steadfast, intent on Me; his wisdom is steady whose senses are under control.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Restraining the same organs by the mind, the master of Yoga would sit, making Me their goal; for the intellect of that person is stabilized whose sense-organs are under control.

In English by Shri Purohit Swami

Restraining them all, let him steadfastly meditate on Me; for whoever conquers their senses achieves perfection.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।2.61।। कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।2.61।। उन सब इन्द्रियों को संयमित कर युक्त और मत्पर होवे। जिस पुरुष की इन्द्रियां वश में होती हैं? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

2.61 तानि them? सर्वाणि all? संयम्य having restrained? युक्तः joined? आसीत should sit? मत्परः intent on Me? वशे under control? हि indeed? यस्य whose? इन्द्रियाणि senses? तस्य his? प्रज्ञा wisdom? प्रतिष्ठिता is settled.Commentary He should control the senses and sit focussed on Me as the Supreme? with a calm mind. The wisdom of the Yogi who thus seated has brought all his senses under subjugation is doubtless ite steady. He is established in the Self. Sri Sankaracharya explains Asita Matparah as He should sit contemplating I am no other than He. (Cf.II.64).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 2.61।। व्याख्या-- 'तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः'-- जो बलपूर्वक मनका हरण करनेवाली इन्द्रियाँ हैं, उन सबको वशमें करके अर्थात् सजगतापूर्वक उनको कभी भी विषयोंमें विचलित न होने देकर स्वयं मेरे परायण हो जाय। तात्पर्य यह हुआ कि जब साधक इन्द्रियोंको वशमें करता है, तब उसमें अपने बलका अभिमान रहता है कि मैंने इन्द्रियोंको अपने वशमें किया है। यह अभिमान साधकको उन्नत नहीं होने देता और उसे भगवान्से विमुख करा देता है। अतः साधक इन्द्रियोंका संयमन करनेमें कभी अपने बलका अभिमान न करे उसमें अपने उद्योगको कारण न माने, प्रत्युत केवल भगवत्कृपाको ही कारण माने कि मेरेको इन्द्रियोंके संयमनमें जो सफलता मिली है, वह केवल भगवान्की कृपासे ही मिली है। इस प्रकार केवल भगवान्के परायण होनेसे उसका साधन सिद्ध हो जाता है। यहाँ 'मत्परः' कहनेका मतलब है कि मानवशरीरका मिलना, साधनमें रुचि होना, साधनमें लगना, साधनका सिद्ध होना--ये सभी भगवान्की कृपापर ही निर्भर हैं। परन्तु अभिमानके कारण मनुष्यका इस तरफ ध्यान कम जाता है। कर्मयोगीयोंमें तो कर्म करनेकी ही प्रधानता रहती है और उसमें वह अपना ही पुरुषार्थ मानता रहता है। अतः भगवान् विशेष कृपा करके कर्मयोगी साधकके लिये भी अपने परायण होनेकी बात कह रहे हैं। भगवान्के परायण होनेका तात्पर्य है--केवल भगवान्में ही महत्त्वबुद्धि हो कि भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्का हूँ; संसार मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ। कारण कि भगवान् ही हरदम मेरे साथ रहते हैं; संसार मेरे साथ रहता ही नहीं। इस प्रकार साधकका 'मैं-पन' केवल भगवान्में ही लगा रहे। कर्मयोगका प्रकरण होनेसे यहाँ भगवान्को कर्मयोगके अनुसार उपाय बताना चाहिये था। परन्तु गीताका अध्ययन करनेसे ऐसा मालूम देता है कि साधनकी सफलतामें केवल भगवत्परायणता ही कारण है। अतः गीतामें भगवत्-परायणताकी बहुत महिमा गायी गयी है; जैसे--जितने भी योगी हैं, उन सब योगियोंमें श्रद्धा-प्रेमपूर्वक मेरे परायण होकर मेरा भजन करनेवाला श्रेष्ठ है (6। 47 ) आदि-आदि। 'वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता'-- पहले उनसठवें श्लोकमें भगवान्ने यह कहा कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर भी स्थितप्रज्ञता नहीं होती और इस श्लोकमें कहते हैं कि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, वह स्थितप्रज्ञ है। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ (2। 59 में) इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर भी भीतरमें रसबुद्धि पड़ी है; अतः इन्द्रियाँ वशमें नहीं है। परन्तु यहाँ स्थितप्रज्ञ पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें हैं और उसकी रसबुद्धि निवृत्त हो गयी है। इसलिये यह नियम नहीं है कि इन्द्रियोंका विषयोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर वह स्थितप्रज्ञ हो ही जायगा; क्योंकि उसमें रसबुद्धि रह सकती है। परन्तु यह नियम है स्थितप्रज्ञ होनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो ही जायँगी। सम्बन्ध--  भगवान्के परायण होनेसे तो इन्द्रियाँ वशमें होकर रसबुद्धि निवृत्त हो ही जायगी पर भगवान्के परायण न होनेसे क्या होता है इसपर आगेके दो श्लोक कहते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।2.61।। अध्यात्म साम्राज्य के सम्राट आत्मा के पतन का मूल कारण ये इन्द्रियां ही हैं। अर्जुन को यहां सावधान किया गया है कि वह पूर्णत्व प्राप्ति के लिये इन्द्रियों और विषयों के अनियन्त्रित एवं उन्मुक्त विचरण के प्रति सतत सजग रहे। आधुनिक मनोविज्ञान गीता के इस उपदेश पर नाकभौं सिकोड़ेगा क्योंकि जर्मन मनोवैज्ञानिक सिगमण्ड फ्रायड के अनुसार वासनायें मनुष्य की स्वाभाविक मूल प्रवृत्ति हैं और उनके संयमित करने का अर्थ है उनका अप्राकृतिक दमन।पाश्चात्य देशों में संयम का अर्थ दमन समझा जाता है और मन के स्वास्थ्य की दृष्टि से दमन को कोई भी स्वीकार नहीं करेगा। परन्तु वैदिक दर्शन में कहीं भी दमन का उपदेश नहीं दिया गया। वहाँ तो बुद्धि की उस परिपक्वता पर बल दिया गया है जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व खिल उठे और श्रेष्ठ वस्तुओं की प्राप्ति से निकृष्ट की इच्छा अपने आप ही छूट जाये। वहाँ इच्छाओं का दमन नहीं वरन् उनसे ऊपर उठने को कहा गया है।भगवान् श्रीकृष्ण इस वैदिक सिद्धांत को यहां अत्यन्त सुन्दर ढंग से स्पष्ट करते हैं। वे आत्म विकास की साधना के विधेयात्मक (जो करना चाहिये) और निषेधात्मक (जो त्यागना चाहिये) दोनों पक्षों पर प्रकाश डालते हैं। आत्मविकास के जो प्रतिकूल भोग और कर्म हैं उन्हें त्यागकर अनुकूल साधना का अभ्यास करना चाहिये। विधेयात्मक साधना में भगवान् शिष्य को मत्पर होने का उपदेश देते हैं। मत्पर का अर्थ हैजो मुझ परमात्मा को ही जीवन का परम लक्ष्य समझता है।युक्त आसीत मत्पर इस अर्ध पंक्ति में ही गीता द्वारा आत्मविकास की पूर्ण साधना बतायी गयी है। मनुष्य को पशु के स्तर पर ले जाने वाली अनैतिक एवं कामुक प्रवृत्तियां उसके असंख्य जन्मजन्मान्तरों में किये विषयोपभोग और उनसे अर्जित वासनाओं का ही परिणाम है। एक जीवन में ही उन सबको नष्ट करना अथवा उनके परे जाना मनुष्य के लिये कदापि संभव नहीं। नैतिकता के उन्नायकों आदर्श शिक्षकों और अध्यात्म के साधकों की निराशा का भी यही एक कारण है।इन वैषयिक प्रवृत्तियों को समाप्त करने का साधन प्राचीन ऋषियों ने स्वानुभव से खोज निकाला था। ध्यान के शान्त वातवरण में मन को अपने शुद्ध पूर्ण स्वरूप में स्थिर करने का प्रयत्न ही वह साधना है। इसके अभ्यास से जिसकी इन्द्रियां स्वत ही वश में आ गयी हैं वही स्थितप्रज्ञ पुरुष माना जाता है।इस श्लोक का गूढ़ार्थ अब स्पष्ट हो जाता है निराहारी का बलपूर्वक किया हुआ इन्द्रिय निग्रह क्षणिक है जिससे आध्यात्मिक सौन्दर्य के खिल उठने की कोई आशा नहीं करनी चाहिये। आत्मानुभाव में स्थित जिस पुरुष की इन्द्रियाँ स्वत वश में रहती हैं वह स्थितप्रज्ञ है। न तो वह इन्द्रियों को नष्ट करता है और न उनका उपयोग ही बन्द करता है। एवं पूर्णत्व प्राप्त ज्ञानी पुरुष वह है जिसकी इन्द्रियाँ और मन वश में होकर उसकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं।अब भगवान् असफल व्यक्ति के पतन के कारण बताते हैं।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।2.61।।इन्द्रियाणां स्ववशत्वसंपादनानन्तरं कर्तव्यमर्थमाह  तानीति।  एवमासीनस्य किं स्यादिति तदाह  वशे हीति।  समाहितस्य विक्षेपविकलस्य कथमासनमित्यपेक्षायामाह  मत्पर इति।  परापरभेदशङ्कामपाकृत्यासनमेव स्फोरयति  नान्योऽहमिति।  उत्तरार्धं व्याकरोति  एवमिति।  हिशब्दार्थं स्फुटयति  अभ्यासेति।  परस्मादात्मनो नाहमन्योऽस्मीति प्रागुक्तानुसंधानस्यादरेण नैरन्तर्यदीर्घकालानुष्ठानसामर्थ्यादित्यर्थः। अथवा विषयेषु दोषदर्शनाभ्याससामर्थ्यादिन्द्रियाणि संयतानीत्यर्थः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।2.61।।   तस्मात्तानि सर्वाणि वशीकृत्य युक्तः समाहितः सन् मत्परोऽहं वासुदेवः सर्वप्रत्यगात्मा परो यस्य स मत्परो नान्यस्तस्मादहमित्यासीतेत्यर्थः। स्पष्टमन्यत्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।2.61।।तर्ह्यशक्यान्येवेत्यत आह तानीति। बहुयत्नतः शक्यानि। अतो यत्नं कुर्यादित्याशयः। युक्तो मयि मनोयोगयुक्तः। अहमेव परः सर्वस्मादुत्कृष्टो यस्य स मत्परः। फलमाह वशे हीति।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।2.61।।यद्यप्येवं तथापि तानि नियन्तव्यान्येवान्यथास्थितप्रज्ञत्वस्यैवासिद्धेरित्याह  तानीति।  संयम्य वशीकृत्य युक्तः संनद्धो मत्परः अहमेव सर्वेषां प्रत्यगात्मा परः स्त्र्यादिभ्यो बाह्येभ्यो देहेन्द्रियादिभ्य आन्तरेभ्यश्च उत्कृष्टः प्रियतमो यस्य स मत्परः सन्नासीत। हि यस्मात् वशे आज्ञायाम्। शेषं स्पष्टम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।2.61।।सर्वस्य दोषस्य परिजिहीर्षया विषयानुरागयुक्ततया दुर्जयानि इन्द्रियाणि  संयम्य  चेतसः शुभाश्रय भूते मयि मनः अवस्थाप्य समाहितः आसीत। मनसि मद्विषये सति निर्दग्धाशेषकल्मषतया निर्मलीकृतं विषयानुरागरहितं मन इन्द्रियाणि स्ववशानि करोति। ततो वश्येन्द्रियं मन आत्मदर्शनाय प्रभवति। उक्तं च यथाग्निरुद्धतशिखः कक्षं दहति सानिलः। तथा चित्तस्थितो विष्णुर्योगिनां सर्वकिल्बिषम्।। (वि0 पु0 6।7।74) इति। तदाह वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता इति।एवं मयि अनिवेश्य मनः स्वयत्नगौरवेण इन्द्रियजये प्रवृत्तो विनष्टो भवति इत्याह

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।2.61।।यस्मादेवं तस्मात्  तानीति।  युक्तो योगी तानीन्द्रियाणि संयम्य मत्परः सन्नासीत। यस्य वशे वशवर्तीनि। एतेन कथमासीतेति प्रश्नस्य वशीकृतेन्द्रियः सन्नासीतेत्युत्तरमुक्तं भवति।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।2.61।।ननु तपस्विनोऽपि कथं स्थितप्रज्ञशब्दो न प्रवर्तते उच्यते विषया इति। यद्यपि आह्ार्यैः रूपादिभिर्विषयैः संबन्धोऽस्य नास्ति तथापि तस्य विषया अन्तःकरणगतमुपरागलक्षणं रसं वर्जयित्वा एव निवर्तन्ते। अतो नासौ स्थिरप्रज्ञः। रसं केचिदास्वाद्यं मधुरादिकमाहुः (K omits this entire sentence )। योगिनस्तु परमेश्वरदर्शनात् उपरागो न (N omits न) भवति। अन्यस्य तु तपस्विनो नासौ निवर्तते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।2.61।।उपोद्धातस्य साध्ये वक्तव्ये तानि सर्वाणीति किमुच्यत इत्यतोऽन्तरापतितां शङ्कां निवर्तयितुमेतदिति भावेनाह  तर्ही ति। यदि साधारणविवेकज्ञानाभ्यां न जीयन्ते इत्यर्थः। अशक्यान्येव जेतुमिति शेषः। निराहारस्य देहावस्थानासम्भवात्। ब्रह्मापरोक्षज्ञानस्य चेन्द्रियजयसाध्यतयाऽभिप्रेतत्वेनेतरेतराश्रयप्रसङ्गादिति भावः। तथा च तज्जयस्य ज्ञानसाधनत्वं यद्विवक्षितं तन्न सम्भवतीति शङ्काशेषः। इन्द्रियसंयमोऽशक्य एवेति शङ्कायां तानि सर्वाणि संयम्यासीतेति किमेतदुच्यते इत्यत आह  बहुयत्ने ति। यत्नं बहुमिति शेषः। यद्यपि तज्जयेन परोक्तं साधनं अस्मदुक्तं वा शक्यं तथापि तत्प्रतिनिधिना महाप्रयत्नेन जय्यानीत्यर्थः। एतदप्युपोद्धातत्वेनैवोक्तमिति ज्ञातव्यम्। युक्त इति नैतद्युजिरो रूपम् येन प्रतिसम्बन्ध्याकाङ्क्षायां तदनुक्तिदोषः स्यात् किन्तु समाध्यर्थस्य युजेरिति भावेनाह  युक्त  इति। मत्पर इत्युत्तरत्र श्रवणात्मयि इत्युक्तम्। मत्पर इत्यद्वैतज्ञानं इत्यन्यैर्व्याख्यातं तन्नाक्षरानुसारीत्याशयवान्व्याचष्टे  अहमेवे ति। भगवानेव सर्वस्मादुत्कृष्ट इति ज्ञात्वा तस्मिन्नेव निरन्तरं मनसो योजनं इन्द्रियजये परं साधनमिति भावः। निराहारत्वादिकं तु वस्तुगतिप्रदर्शनार्थमेवोक्तमिति मन्तव्यम्। यदर्थमयमुपोद्धात उक्तस्तत्प्रदर्शन पर तयोत्तरार्धतात्पर्यमाह  फल मिति। यद्येवं ततः किमित्याशङ्कायां इन्द्रियजयस्य ज्ञानं फलमाहेत्यर्थः। यत एवं ज्ञानं महायाससाध्येन्द्रियजयफलं अतएवायासभीरुर्जनो न तत्साधयति न तु ज्ञानस्योक्तलक्षणत्वाभावादिति श्लोकत्रयतात्पर्यार्थः।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।2.61।।एवं तर्हि तत्र कः प्रतीकार इत्यत आह तानीन्द्रियाणि सर्वाणि ज्ञानकर्मसाधनभूतानि संयम्य वशीकृत्य युक्तः समाहितो निगृहीतमनाः सन्नासीत निर्व्यापारस्तिष्ठेत्। प्रमाथिनां कथं स्ववशीकरणमिति चेत्तत्राह मत्पर इति। अहं सर्वात्मा वासुदेव एव पर उत्कृष्ट उपादेयो यस्य स मत्परः। एकान्तमद्भक्त इत्यर्थः। तथा चोक्तम्न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् इति। यथा हि लोके बलवन्तं राजानमाश्रित्य दस्यवो निगृह्यन्ते राजाश्रितोऽयमिति ज्ञात्वा च ते स्वयमेव तद्वश्या भवन्ति तथैव भगवन्तं सर्वान्तर्यामिणमाश्रित्य तत्प्रभावेणैव दुष्टानीन्द्रियाणि निग्राह्याणि। पुनश्च भगवदाश्रितोऽयमिति मत्वा तानि तद्वश्यान्येव भवन्तीति भावः। यथाच भगवतद्भक्तेर्महाप्रभावत्वं तथा विस्तरेणाग्रे व्याख्यास्यामः। इन्द्रियवशीकारे फलमाह वशे हीति। स्पष्टम्। तदेतद्वशीकृतेन्द्रियः सन्नासीतेति किमासीतेति प्रश्नस्योत्तरमुक्तं भवति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।2.61।।अतस्तानि सर्वाणि संयम्य स्ववशगानि कृत्वा मत्परः अहमेव परो यस्य तादृशो युक्तः मयि युक्त आसीत। एवं यो मत्परस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। यस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता तस्येन्द्रियाणि वशे भवन्ति नान्यस्येत्यर्थः। प्रमाथित्वादिति भावः। अत एव पूर्वार्द्धे विपश्चितामपि तदसामर्थ्यमुक्तम्।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।2.61।।  तानि सर्वाणि संयम्य  संयमनं वशीकरणं कृत्वा  युक्तः  समाहितः सन्  आसीत मत्परः  अहं वासुदेवः सर्वप्रत्यगात्मा परो यस्य सः मत्परः न अन्योऽहं तस्मात् इति आसीत इत्यर्थः। एवमासीनस्य यतेः  वशे हि यस्य इन्द्रियाणि  वर्तन्ते अभ्यासबलात्  तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।अथेदानीं पराभविष्यतः सर्वानर्थमूलमिदमुच्यते  

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।2.60 2.61।।तेष्वेव प्रथममुपदेशे कर्त्तव्यतादृढनाय तस्यासनं सहेतुकं लक्षयति यततोऽपीति द्वाभ्याम्। यततोऽपि तत्तदिन्द्रियजयाभ्यास एव श्रेयान् मनःप्रमाथित्वादिद्रियाणां अतस्तानि सर्वाणि प्रथमं बुद्ध्या संयम्य युक्तो य आसीत मत्परः तस्यैव प्रतिष्ठिता प्रज्ञाऽवसेया।


Chapter 2, Verse 61