Chapter 2, Verse 60

Text

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।

Transliteration

yatato hyapi kaunteya puruṣhasya vipaśhchitaḥ indriyāṇi pramāthīni haranti prasabhaṁ manaḥ

Word Meanings

yatataḥ—while practicing self-control; hi—for; api—even; kaunteya—Arjun, the son of Kunti; puruṣhasya—of a person; vipaśhchitaḥ—one endowed with discrimination; indriyāṇi—the senses; pramāthīni—turbulent; haranti—carry away; prasabham—forcibly; manaḥ—the mind


Translations

In English by Swami Adidevananda

The turbulent senses, O Arjuna, can forcibly carry away the mind of even a wise man, though he is ever striving.

In English by Swami Gambirananda

For, O son of Kunti, the turbulent senses can violently snatch away the mind of an intelligent person, even while they are striving diligently.

In English by Swami Sivananda

The turbulent senses, O Arjuna, can violently carry away the mind of a wise person, even though they are striving to control them.

In English by Dr. S. Sankaranarayan

For, the turbulent sense-organs can forcibly carry away even the mind of this discerning person, O son of Kunti!

In English by Shri Purohit Swami

O Arjuna! The mind of one who is attempting to conquer it is forcibly carried away, in spite of their efforts, by their tumultuous senses.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।2.60।। हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।2.60।। हे कौन्तेय (संयम का) प्रयत्न करते हुए बुद्धिमान (विपश्चित) पुरुष के भी मन को ये इन्द्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं।।


Commentaries

In English by Swami Sivananda

2.60 यततः of the striving? हि indeed? अपि even? कौन्तेय O Kaunteya (son of Kunti)? पुरुषस्य of man? विपश्चितः (of the) wise? इन्द्रियाणि the senses? प्रमाथीनि turbulent? हरन्ति carry away? प्रसभम् violently? मनः the mind.Commentary The aspirant should first bring the senses under his control. The senses are like horses. If you keep the horses under your perfect control you can reach your destinaton safely. Turbulent horses will throw you down on the way. Even so the turbulent senses will hurl you down into the objects of the senses and you cannot reach your spiritual destination? viz.? Param Dhama (the supreme abode) or the abode of eternal peace and immortality or Moksha (final liberation). (Cf.III.33V.14).

In Hindi by Swami Ramsukhdas

 2.60।। व्याख्या-- 'यततो ह्यपि ৷৷. प्रसभं मनः'-- (टिप्पणी प0 98.1) जो स्वयं यत्न करता है, साधन करता है, हरेक कामको विवेक-पूर्वक करता है, आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करता है, दूसरोंका हित हो दूसरोंको सुख पहुँचे, दूसरोंका कल्याण हो--ऐसा भाव रखता है और वैसी क्रिया भी करता है, जो स्वयं कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य ,सार-असारको जानता है और कौन-कौन-से कर्म करनेसे उनका क्या-क्या परिणाम होता है--इसको भी जाननेवाला है, ऐसे विद्वान पुरुषके लिय यहाँ 'यततो ह्यपि पुरुषस्य विपश्चितः' पद आये हैं। प्रयत्न करनेवाले ऐसे विद्वान् पुरुषकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं विषयोंकी तरफ खींच लेती हैं, अर्थात् वह विषयोंकी तरफ खिंच जाता है आकृष्ट हो जाता है। इसका कारण यह है कि जबतक बुद्धि सर्वथा परमात्म-तत्त्वमें प्रतिष्ठित (स्थित) नहीं होती, बुद्धिमें संसारकी यत्किञ्चित् सत्ता रहती है, विषयेन्द्रिय-सम्बन्धसे सुख होता है, भोगे हुए भोगोंके संस्कार रहते हैं, तबतक साधनपरायण बुद्धिमान् विवेकी पुरुषकी भी इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें नहीं होतीं। इन्द्रियोंके विषय सामने आनेपर भोगे हुए भोगोंके संस्कारओंके कारण इन्द्रियाँ मन-बुद्धिको जबर्दस्ती विषयोंकी तरफ खींच ले जाती हैं। ऐसे अनेक ऋषियोंके उदाहरण भी आते हैं, जो विषयोंके सामने आनेपर विचलित हो गये। अतः साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी भी मेरी इन्द्रियाँ वशमें है', ऐसा विश्वास नहीं करना चाहिये  (टिप्पणी प0 98.2)  और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि 'मैं जितेन्द्रिय हो गया हूँ।' सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें यह बताया कि रसबुद्धि रहनेसे यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी इन्द्रियाँ उसके मनको हर लेती हैं जिससे उसकी बुद्धि परमात्मामें प्रतिष्ठित नहीं होती। अतः रसबुद्धिको दूर कैसे किया जाय इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।2.60।। अब तक के अपने प्रवचन में भगवान् श्रीकृष्ण ने ज्ञानी पुरुष के इन्द्रिय संयम की सार्मथ्य पर विशेष बल दिया है। भारत में दर्शनशास्त्र के सिद्धान्तों को अव्यावहारिक होने पर स्वीकारा नहीं जाता। अत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को उन साधनों का भी उपदेश देते हैं जिनके अभ्यास से वह भी स्थितप्रज्ञ के पूर्णत्व को प्राप्त कर सकता है।सत्त्व (विवेकशीलता) रज (क्रियाशीलता ) और तम (निष्क्रियता) इन तीन गुणों का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति के अन्तकरण पर पड़ता है। तमोगुण के आवरण तथा रजोगुण के विक्षेप के कारण जब सत्त्व गुण भी दूषित हो जाता है तब अनेक दुखों को हमें भोगना पड़ता है। यदि इन्द्रियों पर पूर्ण संयम न हो तो वे मन को विषयों की ओर बलपूर्वक खींच ले जायेंगी जिसका एक मात्र परिणाम होगा दुख। इस श्लोक में स्वीकार किया गया है कि ऐसी स्थिति किसी बुद्धिमान साधक की भी कभीकभी होती है। यह वाक्य भयभीत करने या किसी को निरुत्साहित करने के लिए नहीं समझना चाहिए। अर्जुन को केवल इस बात की सावधानी रखने को कहा गया है कि वह कभी अपने मन का बुद्धि पर आधिपत्य स्थापित न होने दे। सावधानी की यह सूचना अत्यन्त समयोचित है।अध्यात्म साधना का अभ्यास करने वाले अनेक साधकों के पतन का कारण एक ही है। कुछ वर्षों तक तो वे संयम के प्रति सजग रहते हैं जिसके फलस्वरूप उन्हें आनन्द भी मिलता है। तत्पश्चात् स्वयं पर अत्यधिक विश्वास के कारण तप के प्रति उनकी जागरूकता कम हो जाती है और तब स्वाभाविक ही इन्द्रियाँ बलपूर्वक मन को विषयों में खींच ले जाती हैं और साधक की शान्ति को नष्ट कर देती हैं।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।2.60।।श्लोकान्तरमवतारयति  सम्यग्दर्शनेति।  मनसः स्ववशत्वादेव प्रज्ञास्थैर्यसंभवे किमर्थमिन्द्रियाणां स्ववशत्वापादनमित्याशङ्क्याह  यस्मादिति।  ननु विवेकवतो विषयदोषदर्शिनो विषयेभ्यः स्वयमेवेन्द्रियाणि व्यावर्तन्ते किं तत्र प्रज्ञास्थैर्यं चिकीर्षता कर्तव्यमिति तत्राह  यततो हीति।  विषयेषु भूयो भूयो दोषदर्शनमेव प्रयत्नः। हिशब्दस्य यस्मादर्थस्य समाप्तौ संबन्धं वक्ष्यति। अपिशब्दस्य प्रयत्नं कुर्वतोऽपीति संबन्धं गृहीत्वा संबन्धान्तरमाह  पुरुषस्येति।  प्रमथनशीलत्वं प्रकटयति  विषयेति।  विक्षोभस्याकुलीकरणस्य फलमाह  आकुलीकृत्येति।  प्रकाशमेवेत्युक्तं विशदयति  पश्यत इति।  विपश्चितो विदुषोऽपि प्रकाशमेव प्रकाशशब्दितविवेकाख्यविज्ञानेन युक्तमेव मनो हरन्तीन्द्रियाणीति संबन्धः। हिशब्दार्थमनूद्य तस्मादिन्द्रियाणि स्ववशे स्थापयितव्यानीति पूर्वेण संबन्धमभिसन्धायाह  यतस्तस्मादिति। 

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।2.60।।   सभ्यग्दर्शनं विना रसस्योच्छेदो नास्तीत्युक्तं तच्चाजितेन्द्रियस्य दुर्लभमिन्द्रियनिग्रहश्चातियत्नसाध्यः तस्मात्सम्यग्दर्शनलक्षणं प्रज्ञास्थैर्यं चिकीर्षता आदाविन्द्रियजयः कार्य इत्याशयेन तदकरणे दोषमाह  यतत इति।  हि यस्माद्विपश्चितो बुद्धिमतः प्रज्ञास्थैर्यार्थं यततो यतमानस्यापीन्द्रियाणि प्रमथनशीलानि पुरुषं विषयाभिमुखं कर्तुं समर्थानि तं व्याकुलीकृत्य प्रसभं बलात्कारेण विवेकयुक्तमपि मनो हरन्ति। कौन्तेयेति संबोधयन्निन्द्रियापेक्षया पुरुषस्य दौर्बल्यं सूचयति।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।2.60।।अपरोक्षज्ञानरहितज्ञानिनोऽपि साधारणयत्नवतोऽपि मनो हरन्तीन्द्रियाणि। पुरुषस्य शरीराभिमानिनः। को दोषस्ततः प्रमाथीनि प्रमथनशीलानि पुरुषस्य।

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।2.60।।किंच सुप्तादेरिन्द्रियाणि श्रान्त्या स्वयमेव लीयन्ते समाहितेन तु तानि कूर्मेणाङ्गानीव स्वेच्छया संह्रियन्ते एतच्चात्यन्तायाससाध्यमित्याह  यतत इति।  विपश्चितः शास्त्राचार्योपदेशवतो यततोऽपि समाधिसिद्ध्यर्थं यतमानस्यापि पुरुषस्य इन्द्रियाणि कर्तृ़णि मनः प्रतीचि स्थिरीक्रियमाणं कर्मीभूतं हरन्ति विषयप्रवणं कुर्वन्ति। यतः प्रमाथीनि यथा बहवश्चोरा वने एकं पुरुषं प्रमथ्य तस्य वित्तं हरन्ति एवमिन्द्रियाणि यततो मनो हरन्ति। यतः प्रसभमतिशयेन प्रमथनशीलानि।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।2.60।।आत्मदर्शनेन विना विषयरागो न निवर्तते अनिवृत्ते विषयरागे  विपश्चितो  यतमानस्य  अपि पुरुषस्य   इन्द्रियाणि प्रमाथीनि  बलवन्ति  मनः  प्रसह्य  हरन्ति।  एवम् इन्द्रियजय आत्मदर्शनाधीन आत्मदर्शनम् इन्द्रियजयाधीनम् इति ज्ञाननिष्ठा दुष्प्राप्या।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।2.60।।इन्द्रियसंयमं विना तु स्थितप्रज्ञता न संभवति। अतः साधकावस्थायां तत्र महान्प्रयत्नः कर्तव्य इत्याह  यततो   ह्यपीति द्वाभ्याम्।  यततो मोक्षे प्रयतमानस्यापि विपश्चितो विवेकिनोऽपि मन इन्द्रियाणि प्रसभं बलाद्धरन्ति। यतः प्रमाथीनि प्रमथनशीलानि प्रक्षोभकाणि।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।2.60।।यदा संहरते इति। न चास्य पाचकवद्योगरूढत्वम्। यदा यदा किलायमिन्द्रियाणि संहरते आत्मन्येव कूर्म इवाङ्गानि क्रोडीकरोति विषयेभ्यः विषयान्निवार्य (S विषयेभ्यः विषयार्थस्यैव विषयान्निवार्य) तदा तदा स्थिरप्रज्ञः। यद्वा इन्द्रियार्थेभ्यः प्रभृति इन्द्रियाणि आत्मनि संहरते विषयेन्द्रियात्मकं (K न्द्रियादिकम्) सर्वम् ( N आसन्नं instead सर्वम्) आत्मसात्कुरुते।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।2.60।।ननु यत्नज्ञानाभ्यामिन्द्रियजयमुक्त्वायततोऽपि इति तद्विरुद्धं कथमुच्यते इति चेत् न इन्द्रियजयार्थं किं निराहारत्वलक्षणेन महाप्रयत्नेन प्रत्याहारादिना साधारणेन प्रत्यनेन तत्सम्भवात् तथा किमपरोक्षज्ञानेन नित्यानित्यविवेकज्ञानेनापि तदुपपत्तेरित्याशङ्क्य तन्निषेधोऽत्र क्रियत इत्याशयवान् व्याचष्टे  अपरोक्षे ति। ज्ञानस्य प्राधान्यसूचनाय विपश्चितोऽपीत्येतत्पश्चादुक्तमपि अपरोक्षेत्यादौ व्याख्यातम्। यततोऽपीत्यस्यार्थः  साधारणे ति। हरन्ति विषयसन्निकृष्टानि तदभिमुखं कृत्वा तद्रागीकुर्वन्तीत्यर्थः। पुरुषस्येति व्यर्थं स्त्रीणामप्येवम्भावादित्यत आह  पुरुषस्ये ति। एतच्चोक्तोपपादनार्थम्।प्रमाथीनि इत्यस्य प्रयोजनं वक्तुमाह  को दोष  इति। एतावताऽऽत्मनस्तदविजयः कथं इत्याशयः। मनो हृतवन्ति पुरुषस्य क्षोभणशीलानि न तेन विजितानीति भावः।पुरुषस्य इत्यनेनोभयत्रास्यान्वयं दर्शयति।

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।2.60।।तत्र प्रज्ञास्थैर्ये बाह्येन्द्रियनिग्रहो मनोनिग्रहश्चासाधारणं कारणं तदुभयाभावे प्रज्ञानादर्शनादिति वक्तुं बाह्येन्द्रियनिग्रहाभावे प्रथमं दोषमाह यतत इति। हे कौन्तेय यततः भूयोभूयो विषयदोषदर्शनात्मकं यत्नं कुर्वतोऽपि। चक्षिङो ङित्करणादनुदात्तेतोऽनावश्यकमात्मनेपदमिति ज्ञापनात्परस्मैपदमविरुद्धम्। विपश्चितोऽत्यन्तविवेकिनोऽपि पुरुषस्य मनः क्षणमात्रं निर्वकारं कृतमपीन्द्रियाणि हरन्ति विकारं प्रापयन्ति। ननु विरोधिनि विवेके सति कुतो विकारप्राप्तिस्तत्राह प्रमाथीनि प्रमथनशीलानि अतिबलीयस्त्वाद्विवेकोपमर्दनक्षमाणि। अतः प्रसभं प्रसह्य बलात्कारेण पश्यत्येव। विपश्चिति स्वामिनि विवेके च रक्षके सति सर्वप्रमाथित्वादेवेन्द्रियाणि विवेकजप्रज्ञायां प्रविष्टं मनस्ततः प्रच्याव्य स्वविषयाविष्टत्वेन हरन्तीत्यर्थः। हिशब्दः प्रसिद्धिं द्योतयति। प्रसिद्धो ह्ययमर्थो लोके यथा प्रमाथिनो दस्यवः प्रसभमेव धनिनं धनरक्षकं चाभिभूय तयोः पश्यतोरेव धनं हरन्ति तथेन्द्रियाण्यपि विषयसंनिधाने मनो हरन्तीति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।2.60।।ननु इन्द्रियसंयमनं सर्वेषां कर्तुमुचितं स्थितप्रज्ञे को विशेषः इति चेत्तत्राह यतत इति द्वाभ्याम्। हे कौन्तेय विपश्चितः शास्त्रार्थविदः पुरुषस्य यततोऽपि यत्नं कुर्वाणस्यापि प्रमाथीनि प्रकर्षेण मथनशीलानि इन्द्रियाणि प्रसभं बलात्कारेण मनो हरन्ति।

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

।।2.60।।  यततः  प्रयत्नं कुर्वतः  अपि हि  यस्मात्  कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः  मेधाविनः अपि इति व्यवहितेन संबन्धः।  इन्द्रियाणि प्रमाथीनि  प्रमथनशीलानि विषयाभिमुखं हि पुरुषं विक्षोभयन्ति आकुलीकुर्वन्ति आकुलीकृत्य च  हरन्ति प्रसभं  प्रसह्य प्रकाशमेव पश्यतो विवेकविज्ञानयुक्तं  मनः ।।यतः तस्मात्

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।2.60 2.61।।तेष्वेव प्रथममुपदेशे कर्त्तव्यतादृढनाय तस्यासनं सहेतुकं लक्षयति यततोऽपीति द्वाभ्याम्। यततोऽपि तत्तदिन्द्रियजयाभ्यास एव श्रेयान् मनःप्रमाथित्वादिद्रियाणां अतस्तानि सर्वाणि प्रथमं बुद्ध्या संयम्य युक्तो य आसीत मत्परः तस्यैव प्रतिष्ठिता प्रज्ञाऽवसेया।


Chapter 2, Verse 60