दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।
duḥkheṣhv-anudvigna-manāḥ sukheṣhu vigata-spṛihaḥ vīta-rāga-bhaya-krodhaḥ sthita-dhīr munir uchyate
duḥkheṣhu—amidst miseries; anudvigna-manāḥ—one whose mind is undisturbed; sukheṣhu—in pleasure; vigata-spṛihaḥ—without craving; vīta—free from; rāga—attachment; bhaya—fear; krodhaḥ—anger; sthita-dhīḥ—enlightened person; muniḥ—a sage; uchyate—is called
He whose mind is not perturbed by pain, who has no longing for pleasures, who is free from desire, fear, and anger—he is called a sage of firm wisdom.
That monk is called a man of steady wisdom when his mind is unperturbed even in sorrow, he is free from longing for delights, and has gone beyond attachment, fear, and anger.
He whose mind is not shaken by adversity, who does not long for pleasures, and is free from attachment, fear, and anger, is called a sage of steady wisdom.
He whose mind is undisturbed amidst sorrows, who is free from desire amidst pleasures, and from whom longing, fear, and wrath have departed—he is said to be a firm-minded sage.
The sage whose mind is unruffled in suffering, whose desire is not aroused by enjoyment, who is without attachment, anger, or fear—take him to be one who stands at a lofty level.
।।2.56।। दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
।।2.56।। दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है? जिसके मन से राग? भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं? वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
2.56 दुःखेषु in adversity? अनुद्विग्नमनाः of unshaken mind? सुखेषु in pleasure? विगतस्पृहः withut hankering? वीतरागभयक्रोधः free from attachment? fear and anger? स्थितधीः of steady wisdom? मुनिः sage? उच्यते (he) is called.Commentary Lord Krishna gives His answer to the second part of Arjunas estion as to the conduct of a sage of steady wisdom in the 56th? 57th and 58th verses.The mind of a sage of steady wisdom is not distressed in calamities. He is not affected by the three afflictions (Taapas) -- Adhyatmika (arising from diseases or disorders in ones own body)? Adhidaivika (arising from thunder? lightning? storm? flood? etc.)? and Adhibhautika (arising from scorpions? cobras? tigers? etc.). When he is placed in an affluent condition he does not long for sensual pleasures. (Cf.IV.10).
।।2.56।। व्याख्या-- [अर्जुनने तो स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है ऐसा क्रियाकी प्रधानताको लेकर प्रश्न किया था पर भगवान् भावकी प्रधानताको लेकर उत्तर देते हैं क्योंकि क्रियाओंमें भाव ही मुख्य है। क्रियामात्र भावपूर्वक ही होती है। भाव बदलनेसे क्रिया बदल जाती है अर्थात् बाहरसे क्रिया वैसी ही दीखनेपर भी वास्तवमें क्रिया वैसी नहीं रहती। उसी भावकी बात भगवान् यहाँ कह रहे हैं] (टिप्पणी प0 94) । 'दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः'-- दुखोंकी सम्भावना और उनकी प्राप्ति होनेपर भी जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता अर्थात् कर्तव्य-कर्म करते समय कर्म करनेमें बाधा लग जाना, निन्दा-अपमान होना, कर्मका फल प्रतिकूल होना आदि-आदि प्रतिकूलताएँ आनेपर भी उसके मनमें उद्वेग नहीं होता। कर्मयोगीके मनमें उद्वेग, हलचल न होनेका कारण यह है कि उसका मुख्य कर्तव्य होता है--दूसरोंके हितके लिये कर्म करना, कर्मोंको साङ्गोपाङ्ग करना, कर्मोंके फलमें कहीं आसक्ति, ममता, कामना न हो जाय--इस विषयमें सावधान रहना। ऐसा करनेसे उसके मनमें एक प्रसन्नता रहती है। उस प्रसन्नताके कारण कितनी ही प्रतिकूलता आनेपर भी उसके मनमें उद्वेग नहीं होता। 'सुखेषु विगतस्पृहः'-- सुखोंकी सम्भावना और उनकी प्राप्ति होनेपर भी जिसके भीतर स्पृहा नहीं होती अर्थात् वर्तमानमें कर्मोंका साङ्गोपाङ्ग हो जाना, तात्कालिक आदर और प्रशंसा होना, अनुकूल फल मिल जाना आदि-आदि अनुकूलताएँ आनेपर भी उसके मनमें
।।2.56।। स्थितप्रज्ञ का मुख्य लक्षण है आत्मानन्द की अनुभूति द्वारा सब कामनाओं का त्याग। श्रीकृष्ण ज्ञानी की पहचान का दूसरा लक्षण बताते हैं सुख और दुख में मन का समत्व रहना। शरीर धारणा के कारण उसको होने वाले अनुभवों के भोक्ता के रूप में उसके व्यवहार को यहां बताया गया है।स्थितप्रज्ञ मुनि वह है जो राग भय और क्रोध से मुक्त है। यदि हम पूर्णत्व प्राप्त पुरुषों की जीवनियों का अध्ययन करें तो उनमें हमें सामान्य मनुष्य से सर्वथा विपरीत लक्षण देखने को मिलेंगे। सामान्य पुरुषों की सैकड़ों प्रकार की भावनायें और गुण ज्ञानी पुरुष में नहीं होते और इसलिये यहां केवल तीन गुणों के अभाव को बताने से हमें आश्चर्य होगा। तब एक शंका मन में उठती है क्या व्यास जी अन्य गुणों को भूल गये क्या यह वाक्य पूर्ण लक्षण बताता है परन्तु विचार करने पर ज्ञात होगा कि ये शंकायें निर्मूल हैं।पूर्व श्लोक में ज्ञानी के निष्कामत्व को बताया गया है और यहाँ उसके मन की स्थिरता को। जगत् में अनेक विषयों के अनुभव से हम जानते हैं कि उनके साथ राग या आसक्ति की वृद्धि होने से मन में भय भी उत्पन्न होने लगता है। विषय को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा होने पर यह भय होता है कि वास्तव में वह वस्तु प्राप्त होगी अथवा नहीं। वस्तु के प्राप्त होने पर भी उसकी सुरक्षा के लिये चिन्ता और भय लगे ही रहते हैं।राग और भय से अभिभूत व्यक्ति के और उसकी इष्ट वस्तु के मध्य कोई विघ्न आता है तो उस विघ्न की ओर मन में जो भाव उठता है उसे कहते हैं क्रोध। क्रोध के आवेग की तीव्रता राग और भय की तीव्रता के समान अनुपात में होती है। अर्थ यह हुआ कि राग ही निमित्तवशात् क्रोध के रूप में व्यक्त होता है।श्री शंकराचार्य जी भाष्य में लिखते हैं कि ज्ञानी पुरुष त्रिविध तापों में स्थिरचित्त रहता है। वे त्रिविध दुख हैं (क) आध्यात्मिकशरीर में रोग आदि (ख) आधिभौतिकबाह्य वस्तुओं आदि से प्राप्त जैसे व्याघ्र चोर आदि (ग) आधिदैविकप्रकृति के प्रकोप जैसे भूकम्प तूफान आदि। ईंधन के डालने पर अग्नि प्रज्वलित होती है। परन्तु ज्ञानी पुरुष में अनेक विषय रूप ईंधन डालने पर भी इच्छा की अग्नि उग्ररूप धारण नहीं करती। ऐसे पुरुष को कहते हैं स्थितप्रज्ञ मुनि।और आगे कहते हैं
।।2.56।।लक्षणभेदानुवादद्वारा विविदिषोरेव कर्तव्यान्तरमुपदिशति किञ्चेति। ज्वरशिरोरोगादिकृतानि दुःखान्याध्यात्मिकानि आदिशब्देनाधिभौतिकानि व्याघ्रसर्पादिप्रयुक्तान्याधिदैविकानि चातिवातवर्षादिनिमित्तानि दुःखानि गृह्यन्ते तेषूपलब्धेष्वपि नोद्विग्नं मनो यस्य स तथेति संबन्धः। नोद्विग्नमित्येतद्व्याचष्टे न प्रक्षुभितमिति। दुःखानां मुक्तानां प्राप्तौ परिहाराक्षमस्य तदनुभवपरिभावितं दुःखमुद्वेगस्तेन सहितं मनो यस्य न भवति स तथेत्याह दुःखप्राप्ताविति। मनो यस्य नोद्विग्नमिति पूर्वेण संबन्धः। सुखान्यपि दुःखवन्त्रिविधानीति मत्वा तथेत्युक्तम् तेषु प्राप्तेषु सत्सु तेभ्यो विगता स्पृहा तृष्णा यस्य स विगतस्पृह इति योजना। अज्ञस्य हि प्राप्तानि सुखान्यनुविवर्धते तृष्णा विदुषस्तु नैवमित्यत्र वैधर्म्यदृष्टान्तमाह नाग्निरिवेति। यथा हि दाह्यस्येन्धनादेरभ्याधाने वह्निर्विवर्धते तथाज्ञस्य सुखान्युपनतान्यनुविवर्धमानापि तृष्णा विदुषो न तान्यनुविवर्धते नहि वह्निरदाह्यमुपगतमपि दग्धुं विवृद्धिमधिगच्छति तेन जिज्ञासुना सुखदुःखयोस्तृष्णोद्वेगौ न कर्तव्यावित्यर्थः। रागादयश्य तेन कर्तव्या न भवन्तीत्याह वीतेति। अनुभूताभिनिवेशे विषयेषु रञ्जनात्मकस्तृष्णाभेदो रागः परेणापकृतस्य गात्रनेत्रादिविकारकारणं भयं क्रोधस्तु परवशीकृत्यात्मानं स्वपरापकारप्रवृत्तिहेतुर्बुद्धिवृत्तिविशेषः मनुते इतिं मुनिरात्मविदित्यङ्गीकृत्याह संन्यासीति। सुखादिविषयतृष्णादे रागादेश्चाभावावस्था तदेत्युच्यते।
।।2.56।। किंचदुःखेष्विति। यत्तु पूर्वश्लोकेन प्रथमप्रश्नस्योत्तरमुक्तं इदानीं व्युत्थिचित्तस्य स्थितप्रज्ञस्य भाषणोपवेशनगमनानि मूढजनविलक्षणानि व्याख्येयानि। तत्र किंप्रभाषेतेत्यस्योत्तरमाहेति तच्चिन्त्यम्।स्थितधीर्मुनिरुच्यते इति वाक्यशेषेण प्रथमप्रश्नोत्तरप्रतीतेः स्पष्टत्वात्। दुःखेष्वाध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकेष्वनुद्विग्नमक्षुभितं मनो यस्य स तथा। त्रिविधसुखेषु विगता स्पृहाभिलाषो यस्य सः। अतएव वीता रागभयक्रोधा यस्मात्स स्थितधीः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।
।।2.56।।तदेव स्पष्टयत्युत्तरैस्त्रिभिः श्लोकैः। एतान्येव ज्ञानोपायानि तच्चोक्तम् तद्वै जिज्ञासुभिः साध्यं ज्ञानिनां यत्तु लक्षणम् इति। शोभनाध्यासो रागः।रसो रागस्तथा रक्तिः शोभनाध्यास इष्यते इत्यभिधानम्।
।।2.56।।दुःखेषु शस्त्रपातादिषु दुःखसाधनेषु प्राप्तेष्वपि अनुद्विग्नमना अचञ्चलमनाः। वक्ष्यति चयस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते इति। सुखेषु सुखसाधनेषु स्रक्चन्दनादिषु प्राप्तेष्वपि विगतस्पृहो निर्वृत्तिकत्वाद्भवति। अतएव वीताः रागभयक्रोधा यस्मात्स तथा। नहि तस्यामवस्थायां रागादयो दुःखादयो वा संभवन्ति। एवंविधः समाधिस्थः स्थितधीः स्थितप्रज्ञ उच्यते।
।।2.56।।प्रियविश्लेषादि दुःखनिमित्तेषु उपस्थितेषु अनुद्विग्नमनाः न दुःखी भवति सुखेषु विगतस्पृहः प्रियेषु सन्निहितेषु अपि निःस्पृहः वीतरागभयक्रोधः अनागतेषु स्पृहा रागस्तद्रवितः प्रियविश्लेषाप्रियागमनहेतुदर्शननिमित्तिं दुःखं भयम् तद्रहितः प्रियविश्लेषाप्रियागमनहेतुभूतचेतनान्तरगतो दुःखहेतुः स्वमनोविकारः क्रोधः तद्रहितः एवंभूतो मुनिः आत्ममननशीलः स्थितधीः इति उच्यते।ततः अर्वाचीनदशा प्रोच्यते
।।2.56।।किंच दुःखेष्विति। दुःखेषु प्राप्तेष्वप्यनुद्विग्नमक्षुभितं मनो यस्य सः। सुखेषु विगता स्पृहा यस्य सः। तत्र हेतुः वीतापगता रागभयक्रोधा यस्मात्। तत्र रागः प्रीतिः। स मुनिः स्थितधीः स्थितप्रज्ञ इत्युच्यते।
।।2.56।।स्थितप्रज्ञस्येति। यदा स्थास्यति बुद्धिः इत्यनेन वचसा समाधिस्थस्य योगिनो यः स्थितप्रज्ञशब्दः (स्थित and स्थिर are found often interchanged in CA.) ( N omit शब्दः) तत्र वाचक उक्तस्तस्य का भाषा किं प्रवृत्तिनिमित्तम् भाष्यते येन निमित्तेन शब्दैरर्थ इति कृत्वा। योगिनः स्थितप्रज्ञशब्दः ( N omit शब्दः) किं रूढ्या वाचकः अन्वर्थतया वा (S omits वा) इत्येकः प्रश्नः। यद्यपि रूढौ शङ्कैव नास्ति तथापि अन्वर्थतां लब्धामपि स्वरूपलक्षणनिमित्तानिरूपणेन ( N त्तरूपेण) स्फुटीकर्तुमेष (S प्रस्फुटी) प्रश्नः। स्थिरधीरिति शब्दपदार्थकः अर्थपदार्थकश्च। तत्र ( N omit च तत्र) स्थिरधीशब्दः किं प्रयोगलक्षणमेवार्थमाह आहो तपस्विनमपि इति द्वितीयः प्रश्नः। स च स्थिरधीर्योगी किमासीत किमभ्यसेत् क्वास्य स्थैर्यं स्यात् इति तृतीयः। अभ्यस्यंश्च (N अभ्यसंश्च) किमाप्नुयात् इति चतुर्थः। एतदेव प्रश्नचतुष्टयं क्रमेण निर्णीयते भगवता (S इति प्रश्नचतुष्यम् अज्ञा (र्जु) नेन कृतं क्रमेण निर्णीयते श्रीभगवता)।
।।2.56।।ननु लक्षणस्यैवानेनैवोक्तत्वात् किं दुःखेष्वित्यादिना इत्यत आह तदेवे ति उक्तं लक्षणमेव। स्पष्टनं च कामशब्दोपलक्षितदोषान्तरत्यागकथनादिनेति ज्ञेयम्। ननु कामत्यागादीनि ज्ञानसाधनतयोच्यन्तेअमानित्वम् 13।7 इत्यादौ। ततां ज्ञानिलक्षणस्य जिज्ञासावतिव्याप्तिरित्यत आह एतानी ति। उप समीपे आयः फललाभो येषां तान्युपायानि साधनानि। सत्यमेतत्। तथापि जिज्ञासौ प्रयत्नसाध्यानि ज्ञानिनि तु स्वभावसिद्धानीत्यदोष इति भावः। अत्र प्रमाणमाह तच्चोक्त मिति। समुच्चयवादी त्वाह यानीह स्थितप्रज्ञलक्षणान्युच्यन्ते तान्येवापवर्गसाधनानीतितद्वै इत्यनेन दूषयति। ज्ञानसाधनान्येव नापवर्गसाधनानि। यथोक्तम्कामकारेण चैके ब्र.सू.3।4।15 इति। आनन्दवृद्ध्यर्थता त्वङ्गीकृतैव।योगे त्विमां शृणु 2।39 इत्युक्त्वा कथमिदं योगादन्यदुच्यत इत्यतो वा इदमुदितमिति।विगतस्पृहः इत्यनेनैववीतराग इत्येतद्गतार्थमित्यत आह शोभने ति। अक्षोभनेषु विषयेषु शोभनत्वभ्रान्तिःरसो रागो रक्तिः इत्येतैः काम उच्यते तथा शोभनाध्यास उच्यते इत्यर्थः।
।।2.56।।इदानीं व्युत्थितस्य स्थितप्रज्ञस्य भाषणोपवेशनगमनानि मूढजनविलक्षणानि व्याख्येयानि। तत्र किं प्रभाषेतेत्यस्योत्तरमाह द्वाभ्याम् दुःखेष्विति। दुःखानि त्रिविधानि शोकमोहज्वरशिरोरोगादिनिमित्तान्याध्यात्मिकानि व्याघ्रसर्पादिप्रयुक्तान्याधिभौतिकानि अतिवातातिवृष्ट्यादिहेतुकान्याधिदैविकानि तेषु दुःखेषु रजःपरिणामसंतापात्मकचित्तवृत्तिविशेषेषु प्रारब्धपापकर्मप्रापितेषु नोद्विग्नं दुःखपरिहाराक्षमतया व्याकुलं न भवति मनो यस्य सोऽनुद्विग्नमनाः। अविवेकिनो हि दुःखप्राप्तौ सत्यामहो पापोऽहं धिङ्मां दुरात्मानमेतादृशदुःखभागिनं को मे दुःखमीदृशं निराकुर्यादित्यनुतापात्मको भ्रान्तिरूपस्तामसचित्तवृत्तिविशेष उद्वेगाख्यो जायते। यद्येवं पापानुष्ठानसमये स्यात्तदा तत्प्रवृत्तिप्रतिबन्धकत्वेन सफलः स्यात्। भोगकालेऽनुभवकारणे सति कार्यस्योच्छेत्तुमशक्यत्वान्निष्प्रयोजने दुःखकारणे सत्यपि किमति मम दुःखं जायत इत्यविवेकजभ्रमरूपत्वान्न विवेकिनः स्थितप्रज्ञस्य संभवति। दुःखमात्रं हि प्रारब्धकर्मणा प्राप्यते नतु तदुत्तरकालीनो भ्रमोऽपि। ननु दुःखान्तरकारणत्वात्सोऽपि प्रारब्धकर्मान्तरेण प्राप्यतामिति चेत्। न। स्थितप्रज्ञस्य भ्रमोपादानाज्ञाननाशेन भ्रमासंभवात्तज्जन्यदुःखप्रापकप्रारब्धाभावात् यथाकथंचिद्देहयात्रामात्रनिर्वाहकप्रारब्धकर्मफलस्य भ्रमाभावेऽपि बाधितानुवृत्त्योपपत्तेरिति विस्तरेणाग्रे वक्ष्यते। तथा सुखेषु सत्त्वपरिणामरूपप्रीत्यात्मकचित्तवृत्तिविशेषेषु त्रिविधेषु प्रारब्धपुण्यकर्मप्रापितेषु विगतस्पृहः आगामितज्जातीयसुखस्पृहारहितः। स्पृहाहि नाम सुखानुभववृत्तिकाले तज्जातीयसुखस्य कारणं धर्ममननुष्ठाय वृथैव तदाकाङ्क्षारूपा तामसी चित्तवृत्तिर्भ्रान्तिरेव सात्राविवेकिन एव जायते। नहि कारणाभावे कार्यं भवितुमर्हति। अतो यथाऽसतिकारणे कार्यं माभूदिति वृथाकाङ्क्षा उद्वेगो विवेकिनो न संभवति। तथैवासति कारणे कार्यं भूयादिति वृथाकाङ्क्षारूपा तृष्णात्मिका स्पृहापि नोपपद्यते। प्रारब्धकर्मणः सुखमात्रप्रापकत्वात्। हर्षात्मिका वा चित्तवृत्तिः स्पृहाशब्देनोक्ता सापि भ्रान्तिरेव। अहो धन्योऽहं यस्य ममेदृशं सुखमुपस्थितं को वा मया तुल्योऽस्ति भुवने केन वोपायेन ममेदृशं सुखं न विच्छिद्येतेत्येवमात्मिकोत्फुल्लतारूपा तामसी चित्तवृत्तिः। अतएवोक्तं भाष्येनाग्निरिवेन्धनाद्याधाने यः सुखान्यनुविवर्धते स विगतस्पृहः इति। वक्ष्यति चन प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् इति। सापि न विवेकिनः संभवति भ्रान्तित्वात्। तथा वीतरागभयक्रोधः। रागः शोभनाध्यासनिबन्धनो विषयेषु रञ्जनात्मकश्चित्तवृत्तिविशेषोऽत्यन्ताभिनिवेशरूपः। रागविषयस्य नाशके समुपस्थिते तन्निवारणासामर्थ्यमात्मनो मन्यमानस्य दैन्यात्मकश्चित्तवृत्तिविशेषो भयम्। एवं रागविषयविनाशके समुपस्थिते तन्निवारणसामर्थ्यमात्मनो मन्यमानस्याभिज्वलनात्मकश्चित्तवृत्तिविशेषः क्रोधः। ते सर्वे विपर्ययरूपत्वाद्विगता यस्मात्स तथा एतादृशो मुनिर्मननशीलः संन्यासी स्थितप्रज्ञ उच्यते। एवंलक्षणः स्थितधीः स्वानुभवप्रकटनेन शिष्यशिक्षार्थमनुद्वेगनिस्पृहत्वादिवाचः प्रभाषत इत्यन्वय उक्तः। एवंचान्योऽपि मुमुक्षुर्दुःखे नोद्विजेत् सुखे न प्रहृष्येत् रागभयक्रोधरहितश्च भवेदित्यभिप्रायः।
।।2.56।।किञ्च। दुःखेषु अनुद्विग्नं मनो यस्य सुखेषु च विगता स्पृहा इच्छा यस्य तादृशो मुनिः मननधर्मयुक्तः स्थितधीः स्थितप्रज्ञ उच्यते। ननु दुःखानुद्वेगे सुखस्पृहाभावे च किं स्यात् अत आह वीतरागभयक्रोध इति। विगता रागभयक्रोधा यस्मात्तादृशः स्यात् एतदेव फलम्। इयं परिभाषा स्थितप्रज्ञस्येति भावः।
।।2.56।। दुःखेषु आध्यात्मिकादिषु प्राप्तेषु न उद्विग्नं न प्रक्षुभितं दुःखप्राप्तौ मनो यस्य सोऽयम् अनुद्विग्नमनाः। तथा सुखेषु प्राप्तेषु विगता स्पृहा तृष्णा यस्य न अग्निरिव इन्धनाद्याधाने सुखान्यनु विवर्धते स विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः रागश्च भयं च क्रोधश्च वीता विगता यस्मात् स वीतरागभयक्रोधः। स्थितधीः स्थितप्रज्ञो मुनिः संन्यासी तदा उच्यते।।किञ्च
।।2.56।।यानि साधकस्य ज्ञानसाधनानि तानि तस्य स्वाभाविकान्यन्तरङ्गाणि चेत्याह दुःखेष्विति।
Chapter 2, Verse 56