Chapter 1, Verse 1

Text

धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।

Transliteration

dhṛitarāśhtra uvācha dharma-kṣhetre kuru-kṣhetre samavetā yuyutsavaḥ māmakāḥ pāṇḍavāśhchaiva kimakurvata sañjaya

Word Meanings

dhṛitarāśhtraḥ uvācha—Dhritarashtra said; dharma-kṣhetre—the land of dharma; kuru-kṣhetre—at Kurukshetra; samavetāḥ—having gathered; yuyutsavaḥ—desiring to fight; māmakāḥ—my sons; pāṇḍavāḥ—the sons of Pandu; cha—and; eva—certainly; kim—what; akurvata—did they do; sañjaya—Sanjay


Translations

In English by Swami Adidevananda

Dhṛtarāṣṭra said: “O Sanjaya, what did my people and the Pāṇḍavas do, gathered together on the holy field of Kurukshetra, eager for battle?”

In English by Swami Gambirananda

Dhṛtarāṣṭra said: O Sanjaya, what did my sons and the sons of Pandu do when they assembled on the sacred field of Kurukshetra, eager for battle?

In English by Swami Sivananda

Dhritarashtra said, "What did my people and the sons of Pandu do when they had assembled together, eager for battle, on the holy plain of Kurukshetra, O Sanjaya?"

In English by Dr. S. Sankaranarayan

Dhritarashtra said, "O Sanjaya, what did my sons and the sons of Pandu do in the Kurukshetra, the field of righteousness, where the entire warring class had assembled?"

In English by Shri Purohit Swami

The King Dhritarashtra asked, "O Sanjaya! What happened on the sacred battlefield of Kurukshetra when my people and the Pandavas gathered?"

In Hindi by Swami Ramsukhdas

।।1.1।। धृतराष्ट्र बोले (टिप्पणी प0 1.2) - हे संजय! (टिप्पणी प0 1.3) धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरेे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया?  

In Hindi by Swami Tejomayananda

।।1.1।।धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक (युयुत्सव:) मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?  


Commentaries

In English by Swami Sivananda

1.1 धर्मक्षेत्रे on the holy plain? कुरुक्षेत्रे in Kurukshetra? समवेताः assembled together? युयुत्सवः desirous to fight? मामकाः my people? पाण्डवाः the sons of Pandu? च and? एव also? किम् what? अकुर्वत did do? सञ्जय O Sanjaya.Commentary Dharmakshetra -- that place which protects Dharma is Dharmakshetra. Because it was in the land of the Kurus? it was called Kurukshetra.Sanjaya is one who has conered likes and dislikes and who is impartial.

In Hindi by Swami Ramsukhdas

1।।व्याख्या-- 'धर्मक्षेत्रे' 'कुरुक्षेत्रे'-- कुरुक्षेत्र में देवताओं ने यज्ञ किया था। राजा कुरु ने भी यहाँ तपस्या की थी। यज्ञादि धर्ममय कार्य होने से तथा राजा कुरु की तपस्याभूमि होने से इसको धर्मभूमि कुरुक्षेत्र कहा गया है।     यहाँ ॓'धर्मक्षेत्रे' और 'कुरुक्षेत्रे' पदों में 'क्षेत्र' शब्द देने में धृतराष्ट्र का अभिप्राय है कि यह अपनी कुरुवंशियों की भूमि है। यह केवल लड़ाई की भूमि ही नहीं है, प्रत्युत तीर्थभूमि भी है, जिसमें प्राणी जीते-जी पवित्र कर्म करके अपना कल्याण कर सकते हैं। इस तरह लौकिक और पारलौकिक सब तरह का लाभ हो जाय-- ऐसा विचार करके एवं श्रेष्ठ पुरुषों की सम्मति लेकर ही युद्ध के लिये यह भूमि चुनी गयी है।     संसार में प्रायः तीन बातों को लेकर लड़ाई होती है-- भूमि, धन और स्त्री। इस तीनों में भी राजाओं का आपस में लड़ना मुख्यतः जमीन को लेकर होता है। यहाँ 'कुरुक्षेत्रे' पद देने का तात्पर्य भी जमीन को लेकर ल़ड़ने में है। कुरुवंश में धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्र सब एक हो जाते हैं। कुरुवंशी होने से दोनों का कुरुक्षेत्र में अर्थात् राजा कुरु की जमीन पर समान हक लगता है। इसलिये (कौरवों द्वारा पाण्डवों को उनकी जमीन न देने के कारण) दोनों जमीन के लिये लड़ाई करने आये हुए हैं।     यद्यपि अपनी भूमि होने के कारण दोनों के लिये 'कुरुक्षेत्रे' पद देना युक्तिसंगत, न्यायसंगत है, तथापि हमारी सनातन वैदिक संस्कृति ऐसी विलक्षण है कि कोई भी कार्य करना होता है, तो वह धर्म को सामने रखकर ही होता है। युद्ध-जैसा कार्य भी धर्मभूमि-- तीर्थभूमि में ही करते हैं, जिससे युद्ध में मरने वालों का उद्धार हो जाय, कल्याण हो जाय। अतः यहाँ कुरुक्षेत्र के साथ 'धर्मक्षेत्रे' पद आया है।     यहाँ आरम्भ में 'धर्म' पद से एक और बात भी मालूम होती है। अगर आरम्भ के 'धर्म' पद में से 'धर्' लिया जाय और अठारहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक के 'मम' पदों से 'म' लिया जाय, तो 'धर्म' शब्द बन जाता है। अतः सम्पूर्ण गीता धर्म के अन्तर्गत है अर्थात् धर्म का पालन करने से गीता के सिद्धान्तों का पालन हो जाता है और गीता के सिद्धान्तों के अनुसार कर्तव्य कर्म करने से धर्म का अनुष्ठान हो जाता है।     इन 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' पदों से सभी मनुष्यों को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि कोई भी काम करना हो तो वह धर्म को सामने रखकर ही करना चाहिये। प्रत्येक कार्य सबके हित की दृष्टि से ही करना चाहिये, केवल अपने सुख-आराम-की दृष्टि से नहीं; और कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में शास्त्र को सामने रखना चाहिये (गीता 16। 24)।     'समवेता युयुत्सवः'-- राजाओं के द्वारा बारबार सन्धि का प्रस्ताव रखने पर भी दुर्योधन ने सन्धि करना स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण के कहने पर भी मेरे पुत्र दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के मैं तीखी सूई की नोक-जितनी जमीन भी पाण्डवों को नहीं दूँगा। (टिप्पणी प0 2.1) तब मजबूर होकर पाण्डवों ने भी युद्ध करना स्वीकार किया है। इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र-- दोनों ही सेनाओं के सहित युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए हैं।     दोनों सेनाओं में युद्ध की इच्छा रहने पर भी दुर्योधन में युद्ध की इच्छा विशेषरूप से थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्य-प्राप्ति का ही था। वह राज्य-प्राप्ति धर्म से हो चाहे अधर्म से, न्याय से हो चाहे अन्याय से, विहित रीति से हो चाहे निषिद्ध रीति से, किसी भी तरह से हमें राज्य मिलना चाहिये-- ऐसा उसका भाव था। इसलिये विशेषरूप से दुर्योधन का पक्ष ही युयुत्सु अर्थात् युद्ध की इच्छावाला था।     पाण्डवों में धर्म की मुख्यता थी। उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे जैसा जीवन-निर्वाह कर लेंगे, पर अपने धर्म में बाधा नहीं आने देंगे, धर्म के विरुद्ध नहीं चलेंगे। इस बात को लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्ध नहीं करना चाहते थे। परन्तु जिस माँ की आज्ञा से युधिष्ठिर ने चारों भाइयों सहित द्रौपदी से विवाह किया था, उस माँ की आज्ञा होने के कारण ही महाराज युधिष्ठिर की युद्ध में प्रवृत्ति हुई थी (टिप्पणी प0 2.2) अर्थात् केवल माँ के आज्ञा-पालनरूप धर्म से ही युधिष्ठिर युद्ध की इच्छावाले हुये हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन आदि तो राज्य को लेकर ही युयुत्सु थे, पर पाण्डव धर्म को लेकर ही युयुत्सु बने थे।     'मामकाः पाण्डवाश्चैव'-- पाण्डव धृतराष्ट्र को (अपने पिता के बड़े भाई होने से) पिता के समान समझते थे और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। धृतराष्ट्र के द्वारा अनुचित आज्ञा देने पर भी पाण्डव उचित-अनुचित का विचार न करके उनकी आज्ञा का पालन करते थे। अतः यहाँ 'मामकाः' पद के अन्तर्गत कौरव (टिप्पणी प0 3.1) और पाण्डव दोनों आ जाते हैं। फिर भी 'पाण्डवाः' पद अलग देने का तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों में तथा पाण्डुपुत्रों में समान भाव नहीं था। उनमें पक्षपात था,अपने पुत्रों के प्रति मोह था। वे दुर्योधन आदि को तो अपना मानते थे, पर पाण्डवों को अपना नहीं मानते थे। (टिप्पणी प0 3.2) इस कारण उन्होंने अपने पुत्रों के लिये 'मामकाः' और पाण्डुपुत्रों के लिये 'पाण्डवा' पद का प्रयोग किया है; क्योंकि जो भाव भीतर होते हैं, वे ही प्रायः वाणी से बाहर निकलते हैं। इस द्वैधीभाव के कारण ही धृतराष्ट्र को अपने कुल के संहार का दुःख भोगना पड़ा। इससे मनुष्यमात्र को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि वह अपने घरों में, मुहल्लों में, गाँवों में, प्रान्तों में, देशों में, सम्प्रदायों में द्वैधीभाव अर्थात् ये अपने हैं, ये दूसरे हैं-- ऐसा भाव न रखे। कारण कि द्वैधीभाव से आपस में प्रेम, स्नेह नहीं होता, प्रत्युत कलह होती है।     यहाँ 'पाण्डवाः' पद के साथ 'एव' पद देने का तात्पर्य है कि पाण्डव तो बड़े धर्मात्मा हैं; अतः उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिये था। परन्तु वे भी युद्ध के लिये रणभूमि में आ गये तो वहाँ आकर उन्होंने क्या किया?     'मामकाः' और 'पाण्डवाः' (टिप्पणी प0 3.3) इनमें से पहले 'मामकाः' पद का उत्तर सञ्जय आगे के (दूसरे) श्लोक से तेरहवें श्लोक तक देंगे कि आपके पुत्र दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को देखकर द्रोणाचार्य के मन में पाण्डवों के प्रति द्वेष पैदा करने के लिये उनके पास जाकर पाण्डवों के मुख्य-मुख्य सेनापतियों के नाम लिये। उसके बाद दुर्योधन ने अपनी सेना के मुख्य-मुख्य योद्धाओं के नाम लेकर उनके रण-कौशल आदि की प्रशंसा की। दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिये भीष्मजी ने जोर से शंख बजाया। उसको सुनकर कौरव-सेना में शंख आदि बाजे बज उठे। फिर चौदहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक 'पाण्डवाः' पद का उत्तर देंगे कि रथ में बैठे हुए पाण्डवपक्षीय श्रीकृष्ण ने शंख बजाया। उसके बाद अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव आदि ने अपने-अपने शंख बजाये, जिससे दुर्योधन की सेना का हृदय दहल गया। उसके बाद भी सञ्जय पाण्डवों की बात कहते-कहते बीसवें श्लोक से श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का प्रसङ्ग आरम्भ कर देंगे।     'किमकुर्वत'-- 'किम्' शब्द के तीन अर्थ होते हैं-- विकल्प, निन्दा (आक्षेप) और प्रश्न।     युद्ध हुआ कि नहीं? इस तरह का विकल्प तो यहाँ लिया नहीं जा सकता; क्योंकि दस दिन तक युद्ध हो चुका है और भीष्म जी को रथ से गिरा देने के बाद सञ्जय हस्तिनापुर आकर धृतराष्ट्र को वहाँ की घटना सुना रहे हैं।     'मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने यह क्या किया, जो कि युद्ध कर बैठे! उनको युद्ध नहीं करना चाहिये था'-- ऐसी निन्दा या आक्षेप भी यहाँ नहीं लिया जा सकता; क्योंकि युद्ध तो चल ही रहा था और धृतराष्ट्र के भीतर भी आक्षेपपूर्वक पूछने का भाव नहीं था।     यहाँ 'किम्' शब्द का अर्थ प्रश्न लेना ही ठीक बैठता है। धृतराष्ट्र सञ्जय से भिन्न-भिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी सब घटनाओं को अनुक्रम से विस्तारपूर्वक ठीक-ठीक जानने के लिये ही प्रश्न कर रहे हैं।     सम्बन्ध-- धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर सञ्जय आगे के श्लोक से देना आरम्भ करते हैं।

In Hindi by Swami Chinmayananda

।।1.1।। सम्पूर्ण गीता में यही एक मात्र श्लोक अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र ने कहा है। शेष सभी श्लोक संजय के कहे हुए हैं जो धृतराष्ट्र को युद्ध के पूर्व की घटनाओं का वृत्तान्त सुना रहा था। निश्चय ही अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र को अपने भतीजे पाण्डवों के साथ किये गये घोर अन्याय का पूर्ण भान था। वह दोनों सेनाओं की तुलनात्मक शक्तियों से परिचित था। उसे अपने पुत्र की विशाल सेना की सार्मथ्य पर पूर्ण विश्वास था। यह सब कुछ होते हुये भी मन ही मन उसे अपने दुष्कर्मों के अपराध बोध से हृदय पर भार अनुभव हो रहा था और युद्ध के अन्तिम परिणाम के सम्बन्ध में भी उसे संदेह था। कुरुक्षेत्र में क्या हुआ इसके विषय में वह संजय से प्रश्न पूछता है। महर्षि वेदव्यास जी ने संजय को ऐसी दिव्य दृष्टि प्रदान की थी जिसके द्वारा वह सम्पूर्ण युद्धभूमि में हो रही घटनाओं को देख और सुन सकता था।

In Sanskrit by Sri Anandgiri

।।1.1।।एवं गीताशास्त्रस्य साध्यसाधनभूतनिष्ठाद्वयविषयस्य परापराभिधेयप्रयोजनवतो व्याख्येयत्वं प्रतिपाद्य व्याख्यातुकामः शास्त्रं तदेकदेशस्य प्रथमाध्यायस्य द्वितीयाध्यायैकदेशसहितस्य तात्पर्यमाह अत्र चेति। गीताशास्त्रे प्रथमाध्याये प्रथमश्लोके कथासंबन्धप्रदर्शनपरे स्थिते सतीति यावत्। तत्रैवमक्षरयोजना धृतराष्ट्र उवाचेति। धृतराष्ट्रो हि प्रज्ञाचक्षुर्बाह्यचक्षुरभावाद्बाह्यमर्थं प्रत्यक्षयितुमनीशः सन्नभ्याशवर्तिनं संजयमात्मनो हितोपदेष्टारं पृच्छति धर्मक्षेत्र इति। धर्मस्य तद्वृद्धेश्च क्षेत्रमभिवृद्धिकारणं यदुच्यते कुरुक्षेत्रमिति तत्र समवेताः संगता युयुत्सवो योद्धुकामास्ते च केचिन्मदीया दुर्योधनप्रभृतयः पाण्डवाश्चापरे युधिष्ठिरादयस्ते च सर्वे युद्धभूमौ संगता भूत्वा किमकुर्वत कृतवन्तः।

In Sanskrit by Sri Dhanpati

।।1.1।। इह खलु परमकारुणिकः परिपूर्णानन्दस्वभावः सकलैश्वर्यसंपन्नस्त्रिगुणात्मिकया स्ववशीकृतया निजमाययोपात्तकायो भगवान् वासुदेवः शोकमोहाभिभूतं जीवनिकायमुद्दिधीर्षुर्यद्गीताशास्त्रं सर्ववेदसारभूतं काण्डत्रयात्मकं तत्त्वम्पदाखण्डार्थप्रतिपादकं निजविग्रहायार्जुनाय ग्राहयामास। तदेव क्रमप्राप्तं दयानिधिर्वेदव्यासो महाभारते निबध्नाति धृतराष्ट्र उवाचेत्यादि। तत्र धृतराष्ट्र उवाच केषां प्रहृष्टास्तत्राग्रे योधा युध्यन्ति संजय। उदग्रमनसः केऽत्र के वा दीना विचेतसः।।के पूर्वं प्राहरंस्तत्र युद्धे हृदयकम्पिनि। मामकाः पाण्डवानां वा तन्ममाचक्ष्व संजय।। इत्यादिना कृतं प्रश्नं वैशंपायनो जनमेजयंप्रति संक्षिप्योपोद्धातायानुवदति धृतराष्ट्र उवाचेति। मामकाः मदीयाः दुर्योधनादयः पाण्डवाः पाण्डुपुत्राः युधिष्ठिरादयः युयुत्सवः योद्धुमिच्छवः। धर्मस्योपचयस्थानत्वात् धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे श्रुतिस्मृतिलोकप्रसिद्धे समवेता मिलिताः सन्तः किमकुर्वत किं कृतवन्तः। स्वधर्मभूतं धर्मयुद्धं कृतवन्त उताधर्मयुद्धमिति धर्मक्षेत्रपदेन बोधितम्। युयुत्सया समवेता इति मया विस्तरेण श्रुतं तदनन्तरं यथा यत्कृतवन्तः तथा तद्विस्तरेण वदेत्याशयः। भीष्मपतनेन कलहस्यानर्थबोधकानां भवदादिवाक्यानां सम्यग्जयो जात इति ध्वनयन्संबोधयति संजयेति। रागद्वेषादिदोषान्सभ्यग्जितवानसीति कृत्वा निर्व्याजेन त्वया कथनीयमिति सूचनार्थं संजयेति संबोधनमिति केचित्। किमा आक्षेपोऽपि ध्वनितः। अयोग्यं कृतवन्त इत्यर्थः। धर्मक्षेत्रे हिंसाप्रधानस्य युद्धस्यानुचितत्वात्। मामकानामधार्मिकत्वेन तत्संभवेऽपि परमधार्मिकत्वेन प्रसिद्धाः पाण्डवाः युधिष्ठिरादयो भीष्मादिपातनं किं कृतवन्त इति द्योतयन्नाह पाण्डवाश्चेति। पाण्डवेषु ममकाराभावप्रदर्शनेन तेषु द्रोहमभिव्यनक्तीति केचित्। यत्तु पाण्डवानां जयकारणं बहुविधं पूर्वमाकर्ण्य स्वपुत्रराज्यभ्रंशाद्भीतो धृतराष्ट्रः पप्रच्छ स्वपुत्रजयकारणमाशंसन् धृतराष्ट्र इत्यादिना। किं कृतवन्तः किं पूर्वोक्तयुयुत्सानुसारेण युद्धमेव कृतवन्तः उत केनचिन्निमित्तेन युयुत्सानिवृत्त्याऽन्यदेव किंचित्कृतवन्तः। भीमार्जुनादिवीरपुरुषनिमित्तं दृष्टभयं युयुत्सानिवृत्तिकारणं प्रसिद्धमेव। अदृष्टभयमपि दर्शयितुमाह धर्मक्षेत्र इति। तस्मिन् गताः पाण्डवाः पूर्वमेव धार्मिकाः। यदि पक्षद्वयहिंसानिमित्तादधर्माद्भीता निवर्तेन् ततः प्राप्तराज्या एव मत्पुत्राः। अथवा धर्मक्षेत्रमाहात्म्येन पापिनामपि मत्पुत्राणां कदाचिच्चित्तप्रसादाः स्यात्तदा च तेऽनुतप्ताः कपटोपात्तं राज्यं पाण्डवेभ्यो यदि दद्युः तर्हि विनापि युद्धं हता एवेति स्वपुत्रराज्यलाभे पाण्डवराज्यालाभे च दृढतरमुपायमपश्यतो महानुद्वेग एव प्रश्नबीजमिति केचिद्वर्णयन्ति तदुपेक्ष्यम्।अथ गावल्गणिर्धीमान्समरादेत्य संजयः। प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य भूतभव्यभविष्यतः।।ध्यायतो धृतराष्ट्रस्य सहसोपेत्य दुःखितः। आचष्ट निहतं भीष्म भारतानां पितामहम्। संजयोऽहं महाराज नमस्ते भरतर्षभ।।हतो भीष्मः शान्तनवो भारतानां पितामहः। यो ररक्ष समेतानां दशरात्रमनीकहा।।जगामास्तमिवादित्यः कृत्वा कर्म सुदुष्करम्। यः स शक्र इवाक्षोभ्यो वर्षन्बाणन्सहस्त्रशः।।जघान युधि योधानामर्बुदं दशभिर्दिनैः। स शेते निहतो भूमौ वातरुग्ण इव द्रुमः।। इत्यादिसंक्षेपोक्तिपरपूर्वग्रन्थविरोधात्। ननु संक्षेपेण श्रुतमपि मोहाद्विस्मृत्य धृतराष्ट्रेण प्रश्नः कृत इतिचेन्न। प्रश्नस्य पूर्वग्रन्थानुरोधेनास्मदीयोक्तरीत्या सभ्यगुपपत्तेः। पूर्वोक्तविरुद्धप्रश्नव्याख्यानकर्तृ़णामेव मोहादिति दिक्। यत्त्वन्ये धर्मक्षेत्रपदं कुरुक्षेत्रपदादविमुक्तक्षेत्रप्रतिपत्तिर्माभूदित्येतदर्थमिति। तन्न। कुरुक्षेत्रादागतं संजयं किमविमुक्तक्षेत्रे समवेता इति संशयरहितंप्रति विशेषणानर्थक्यात्। अन्येषामपि लोकप्रसिद्य्धा पूर्वग्रन्थेन च निर्णयस्य सत्त्वात्।

In Sanskrit by Sri Madhavacharya

।।1.1।।Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Neelkanth

।।1.1।।तत्र युद्धोद्यमं श्रुत्वौत्सुक्यादग्रिमं वृत्तान्तं बुभुत्सुर्धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्र इति। तत्र वेदेतेषां कुरुक्षेत्रं देवयजनमास इति कर्मकाण्डप्रसिद्धं कुरुक्षेत्रमन्यत्अविमुक्तं वै कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् इत्यविमुक्ताख्यं ब्रह्मप्राप्तिस्थानभूतं कुरुक्षेत्रमन्यत्। ब्रह्मसदनत्वं चास्य अत्र हि जन्तोः प्राणेषूत्क्रममाणेषु रुद्रस्तारकं ब्रह्म व्याचष्टे येनासावमृतीभूत्वा मोक्षी भवतीति वाक्यशेषेण व्युत्पादितम्। एतद्व्यावृत्त्यर्थं धर्मक्षेत्रे इति विशेषणम्। कुरुदेशान्तर्गतं हि कुरुक्षेत्रं धर्मक्षेत्रमेव नतु तद्ब्रह्मसदनम्। प्रवर्ग्यकाण्डे तस्य धर्मक्षेत्रत्वमात्रश्रवणात्। तत्र समवेता मिलिताः युयुत्सवो योद्धुमिच्छवः। पाण्डवानां पृथग्ग्रहणं तेषु ममत्वाभावसूचनार्थम्।

In Sanskrit by Sri Ramanujacharya

।।1.1।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।

In Sanskrit by Sri Sridhara Swami

।।1.1।। इह खलु सकललोकहितावतारः सकलवन्दितचरणः परमकारुणिको भगवान् देवकीनन्दनस्तत्त्वाज्ञानविजृम्भितशोकमोहविभ्रंशितविवेकतया निजधर्मत्यागपरधर्माभिसंधिपरमर्जुनं धर्मज्ञानरहस्योपदेशप्लवेन तस्माच्छोकमोहसागरादुद्दधार। तमेव भगवदुपदिष्टमर्थं कृष्णद्वैपायनः सप्तभिः श्लोकशतैरुपनिबबन्ध। तत्र च प्रायशः श्रीकृष्णमुखनिःसृतानेव श्लोकानलिखत् कांश्चित्तत्संगतये स्वयं व्यरचयत्। यथोक्तं गीतामाहात्म्ये गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।। इति। तत्र तावद्धर्मक्षेत्र इत्यादिना विषीदन्निदमब्रवीदित्यन्तेन ग्रन्थेन श्रीकृष्णार्जुनसंवादप्रस्तावाय कथा निरूप्यते धर्मक्षेत्र इति। भो संजय धर्मभूमौ कुरुक्षेत्रे मत्पुत्राः पाण्डुपुत्राश्च युयुत्सवो योद्धुमिच्छन्तः समवेता मिलिताः सन्तः किं कृतवन्तः।

In Sanskrit by Sri Vedantadeshikacharya Venkatanatha

।।1.1।।धर्मक्षेत्रे धर्मस्य स्थानभूते समराध्वरसमुचिते इति भावः।कुरुक्षेत्रे पाण्डवधार्तराष्ट्राणां स्वकूटस्थनामोपलक्षितत्वेन बहुमानविषय इति भावः।युयुत्सवः समवेताः मिथः प्रत्यनीकरूपेण व्यूढा इत्यर्थः।च एव इत्यव्ययद्व्यमनतिरिक्तार्थम् यद्वा समस्तभूमण्डलवर्तिनां राज्ञां तत्र समाहारेऽपि तादर्थ्याद्वर्गद्वयमेव तथाऽभूदित्येवकाराभिप्रायः।अकुर्वत इत्यात्मनेपदेन कर्त्रभिप्रायक्रियाफलविषयेण स्वार्थतोक्ता।

In Sanskrit by Sri Abhinavgupta

।।1.1।।धर्मक्षेत्र इति। अत्र केचित् व्याख्याविकल्पमाहुः कुरूणां करणानां यत् क्षेत्रमनुग्राहकं अतएव सांसारिकधर्माणां (S सांसारिकत्वधर्माणां) सर्वेषां क्षेत्रम् उत्पत्तिनिमित्तत्वात्। अयं स परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् (या. स्मृ. I 8) इत्यस्य च धर्मस्य क्षेत्रम् समस्तधर्माणां क्षयात् अपवर्गप्राप्त्या त्राणभूतं तदधिकारिशरीरम्। सर्वक्षत्राणां क्षदेः हिंसार्थत्वात् परस्परं वध्यघातकभावेन (S परस्परवध्य ) वर्तमानानां रागवैराग्यक्रोधक्षमाप्रभृतीनां समागमो यत्र तस्मिन् स्थिता ये मामका अविद्यापुरुषोचिता अविद्यामयाः संकल्पाः पाण्डवाः शुद्धविद्यापुरुषोचिता विद्यात्मानः ते किमकुर्वत कैः खलु के जिताः इति। मामकः अविद्यापुरुषः पाण्डुः शुद्धः।

In Sanskrit by Sri Jayatritha

।।1.1।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.

In Sanskrit by Sri Madhusudan Saraswati

।।1.1।।तत्रअशोच्यान्वशोचस्त्वम् इत्यादिना शोकमोहादिसर्वासुरपाप्मनिवृत्त्युपायोपदेशेन स्वधर्मानुष्ठानात्पुरुषार्थः प्राप्यतामिति भगवदुपदेशः सर्वसाधारणः। भगवदर्जुनसंवादरूपा चाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्थाजनकयाज्ञवल्क्यसंवादादिवदुपनिषत्सु। कथं प्रसिद्धमहानुभावोऽप्यर्जुनो राज्यगुरुपुत्रमित्रादिष्वहमेषां ममैत इत्येवंप्रत्ययनिमित्तस्नेहनिमित्ताभ्यां शोकमोहाभ्यामभिभूतविवेकविज्ञानः स्वतएव क्षत्रधर्मे युद्धे प्रवृत्तोऽपि तस्माद्युद्धादुपरराम। परधर्मं च भिक्षाजीवनादि क्षत्रियंप्रति प्रतिषिद्धं कर्तुं प्रववृते। तथाच महत्यनर्थे मग्नोऽभूत् भगवदुपदेशाच्चेमां विद्यां लब्धवा शोकमोहावपनीय पुनः स्वधर्मे प्रवृत्तः कृतकृत्यो बभूवेति प्रशस्ततरेयं महाप्रयोजना विद्येति स्तूयते। अर्जुनापदेशेन चोपदेशाधिकारी दर्शितः। तथाच व्याख्यास्यते। स्वधर्मप्रवृत्तौ जातायामपि तत्प्रच्युतिहेतुभूतौ शोकमोहौकथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादिनार्जुनेन दर्शितौ। अर्जुनस्य युद्धाख्ये स्वधर्में विनापि विवेकं किंनिमित्ता प्रवृत्तिरितिदृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् इत्यादिना परसैन्यचेष्टितं तन्निमित्तमुक्तम्। तदुपोद्धातत्वेन धृतराष्ट्रप्रश्नः संजयं प्रति धर्मक्षेत्रे इत्यादिना श्लोकेन। तत्र धृतराष्ट्र उवाचेति वैशम्पायनवाक्यं जनमेजयं प्रति। पाण्डवानां जयकारणं बहुविधं पूर्वमाकर्ण्य स्वपुत्रराज्यभ्रंशाद्भीतो धृतराष्ट्रः पप्रच्छ स्वपुत्रजयकारणमाशंसन्। पूर्वं युयुत्सवो योद्धुमिच्छवोऽपि सन्तः कुरुक्षेत्रे समवेताः संगताः मामका मदीया दुर्योधनादयः पाण्डवाश्च युधिष्ठिरादयः किमकुर्वत किं कृतवन्तः। किं पुर्वोद्भूतयुयुत्सानुसारेण युद्धमेव कृतवन्त उत केनचिन्निमित्तेन युयुत्सानिवृत्त्यान्यदेव किंचित्कृतवन्तः भीष्मार्जुनादिवीरपुरुषनिमित्तं दृष्टभयं युयुत्सानिवृत्तिकारणं प्रसिद्धमेव अदृष्टभयमपि दर्शयितुमाह धर्मक्षेत्र इति। धर्मस्य पूर्वमविद्यमानस्योत्पत्तेर्विद्यमानस्य च वृद्धेर्निमित्तं सस्यस्येव क्षेत्रं यत्कुरुक्षेत्रं सर्वश्रुतिस्मृतिप्रसिद्धम्।बृहस्पतिरुवाच याज्ञवल्क्यं यदनु कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् इति जाबालश्रुतेःकुरुक्षेत्रं वै देवयजनम् इति शतपथश्रुतेश्च। तस्मिन् गताः पाण्डवाः पूर्वमेव धार्मिकाः यदि पक्षद्वयहिंसानिमित्तादधर्माद्गीता निवर्तेरंस्ततः प्राप्तराज्या एव मत्पुत्राः अथवा धर्मक्षेत्रमाहात्म्येन पापानामपि मत्पुत्राणां कदाचिच्चित्तप्रसादः स्यात्तदा च तेऽनुतप्ताः प्राक्कपटोपात्तं राज्यं पाण्डवेभ्यो यदि दद्युस्तर्हि विनापि युद्धं हता एवेति स्वपुत्रराज्यलाभे पाण्डवराज्यलाभे च दृढतरमुपायमपश्यतो महानुद्वेग एव प्रश्नबीजम्। संजयेति च संबोधनं रागद्वेषादिदोषान्सम्यग्जितवानसीति कृत्वा निर्व्याजमेव कथनीयं त्वयेति सूचनार्थम्। मामकाः किमकुर्वतेत्येतावतैव प्रश्ननिर्वाहे पाण्डवाश्चेति पृथङ्निर्दिशन्पाण्डवेषु ममकाराभावप्रदर्शनेन तद्द्रोहमभिव्यनक्ति।

In Sanskrit by Sri Purushottamji

।।1.1।।वैशम्पायनस्तु जनमेजयाय कथासङ्गतिं वक्तुं प्रथमतो धृतराष्ट्रसंवादमाह। तत्र धृतराष्ट्रो बहुधा पाण्डवान् धर्मपरानेवावगत्य बन्धलक्षणमधर्मं कथं कृतवन्त इत्यभिप्रेत्य पृच्छति। अत्र ह्येवं कथाप्रकारः सञ्जय आगत्य पूर्वं सेनापतिमरणं वक्ति ततो धृतराष्ट्रेण तत्परिदेवने कृते पश्चात्तन्निवृत्तौ सर्वा कथां विस्तारेण वदतीति। तत्र पाण्डवानां स्वल्पं सैन्यं स्वस्य तु महत् स्वस्य शूराश्च भूयांसः तेषां सर्वेषामेव पश्यतां तैरुपेक्षितो भीष्मो रणे पतितः उत पाण्डवैः प्रसह्य मारितः पाण्डवाश्च तादृशे क्षेत्रे पितामहावज्ञालक्षणमधर्मं कथं कृतवन्तः इति ज्ञातुं हे सञ्जय धर्मक्षेत्रे धर्मोत्पत्तिभूमौ कुरुक्षेत्रे मामकाः मत्पुत्राः पाण्डवाः पाण्डुपुत्राश्च युयुत्सवो योद्धुकामाः समवेताः मिलिताः किमकुर्वत किं कृतवन्तः। स्वपुत्राणामधर्मपरायणत्वाद्धर्मक्षेत्रेऽप्यधर्ममेव कृतवन्तः किंवा धर्ममिति स्वीयानां प्रश्नः पाण्डवाश्च धर्मपरायणास्तत्र धर्मक्षेत्रे द्रोणादीन् गुरून् कथं मारितवन्तः इति तेषां प्रश्नः। इदमेव चकारेण द्योतितम्यत्तेषां धर्मपरायणत्वम्। तथा चैकमरणेनैवान्यस्य राज्यप्राप्तिरिति निश्चित्यापि किं कृतवन्त इत्यर्थः। सञ्जयस्य वरप्राप्तसर्वज्ञत्वमालक्ष्य सम्बोधनम्।  

In Sanskrit by Sri Shankaracharya

1.1 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.  

In Sanskrit by Sri Vallabhacharya

।।1.1।।धर्मक्षेत्रे इत्यारभ्यस घोषो धार्तराष्ट्राणां 1।19 इत्यन्तं सम्बन्धः। अत्रैतदध्यायव्याख्या श्रीविठ्ठलेशप्रभुकृता बोध्या।


Chapter 1, Verse 1